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एक भाषा का मर्सिया

जब सत्ताधारी कहते हैं कि वे अपने शत्रुओं से ‘निपट’ लेंगे तो उनके अनुयायी सचमुच शत्रुओं से निपटने में लग जाते हैं और अगर कोई शत्रु न हो तो उसे ईजाद भी कर लेते हैं और इस तरह भाषा की हिंसा समाज की हिंसा बन जाती है. यह एक गंभीर अध्ययन का विषय हो सकता है कि राजनीतिक दलों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली आक्रामक-हिंसक भाषा ने किस तरह समाज में हिंसा को प्रसारित करने और बढाने का काम किया है.

- मंगलेश डबराल




ज़रा कल्पना करें कि सन २०१९ के भारत में मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, धूमिल जैसे कवि जीवित हैं और कवितायें लिख रहे हैं. मुक्तिबोध ‘मर गया देश, अरे/ जीवित रह गए तुम’ लिखते हैं तो नागार्जुन कहते हैं, ‘बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक’. रघुवीर सहाय अपनी लगभग हर कविता में शासकों और ताकतवरों द्वारा लोकतंत्र को तोड़े जाने पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं, ‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हरचरना गाता है’.’ श्रीकांत वर्मा ख़म ठोक कर कहते हैं, ‘मूर्खो! देश को खोकर ही प्राप्त की थी मैंने यह कविता’. उधर धूमिल का सवाल है, ‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है/जिन्हें एक पहिया ढोता है/या इसका कोई खास मतलब होता है?’ इसी कविता में वे पूछते हैं, ‘संत और सिपाही में/देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है.’

धूमिल ने यह कविता पचास साल पहले सन १९६८ में लिखी थी जब हमारी आज़ादी के 20 साल पूरे हुए थे. आज़ादी के 70 साल बाद आज जब देश की सत्ता-राजनीति की आक्रामकता और बढ़ते नागरिक संकटों के बीच संतों और सिपाहियों का भीषण बोलबाला है, अगर नागर्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त और धूमिल जीवित होते तो क्या ‘देशद्रोही’, ‘राष्ट्रद्रोही’ करार देकर उन्हें डराया -धमकाया-सताया जाता? क्या वे निर्भय होकर, बिना किसी आशंका या झिझक के साथ ऐसी पंक्तियाँ लिख सकते? क्या संघ परिवार की ट्रोल सेना और लिंचिग ब्रिगेडों के निशाने पर आने से बच सकते? क्या वे यू आर अनंतमूर्ति की तरह पाकिस्तान या चाँद पर जाने की धमकियां नहीं झेल रहे होते?

आज़ादी के आसपास, स्वप्न और उम्मीद के माहौल में जन्म लेने वाली पीढ़ी के ज़्यादातर बुद्धिजीवियों ने कभी कल्पना नहीं की थी कि देखते ही देखते उनके चारों तरफ असहिष्णुता, विद्वेष और साम्प्रदायिक घृणा की घेरेबंदी हो जायेगी, बेबाकी से अपने विचारों-संवेदनाओं को व्यक्त करने की आज़ादी बहुत हद तक छिनने लगेगी और बिना झिझके हुए कुछ भी अभिव्यक्त करना कठिन होता जाएगा. सन २०१४ में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों में, सार्वजनिक मंचों पर आलोचना करने वाले लोगों की हिस्सेदारी को सरकारी दबाव में रद्द किया गया या वहां गड़बड़ी फैलाई गयी, कितने कलाकारों को प्रदर्शनियों से अपनी कृतियों को हटाना पड़ा, किस तरह बहुत सी पुस्तकों में से संघ परिवार की आलोचना करने वाले अंश हटाये गए, पाठ्यक्रमों को बदला गया, लेखकों-बुद्धिजीवियों के लिए कैसे-कसे अपशब्द इस्तेमाल किये गए और फिर किस ठंडी क्रूरता के साथ एमएम कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर, पानसरे जैसे विद्वानों-विचारको और गौरी लंकेश जैसी निडर पत्रकार की हत्याएं हुईं, उन सबकी सूची तैयार की जाए तो एक बेहद डरावनी तस्वीर सामने आएगी.

आज देश के जिन हिस्सों में संघ परिवार की सत्ता है, वहां एक मुसलसल अशांति व्याप रही है. हिंदी अंचल में गाय और जय श्रीराम के नाम पर अल्पसंख्यकों को धमकाने-पीटने के मामले, लम्पटता और अपराध लगातार बढ़ रहे हैं, असम में एक बेरहम नागरिक रजिस्टर का हाहाकार है, जहां एक ही परिवार में पति को ‘मूल निवासी’ और पत्नी को ‘विदेशी और घुसपैठिया’ करार दिया जाता है और परिवार टूटने के डर से बिलखते हैं. जम्मू-कश्मीर में फिलहाल लाखों सैनिकों की तैनाती का बीहड़ सन्नाटा है और वहां प्रत्येक तीन परिवारों पर एक बंदूकधारी सैनिक तैनात है. संसद में सत्ताधारी नेताओं के धौंसियाते शब्दों, आक्रामक भंगिमाओं और शरीर-भाषा को देखिये तो लगता है उनके भीतर किसी भी लोकतांत्रिक भावना या मूल्य के प्रति कोई सम्मान नहीं है, बल्कि एक तिरस्कार है. छंटे हुए शैतानों को इस तरह अच्छे इंसान कह कर महिमामंडित किया जा रहा है कि आज के इन खलनायकों के मुकाबले अतीत के खलनायक और अपराधी सरल, भले और निर्दोष नज़र आने लगे हैं. हिंदी समाज के अखबारों-पत्रिकाओं और समाचार चैनलों पर सत्ताधारियों को शिकंजा कसने के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं करनी पडी, क्योंकि उनके मालिकों के दिमागों में पहले से ही साम्रदायिकता मौजूद थी और फिर, उनसे कह दिया गया कि ‘अपनी मदद आप करो’ वरना विज्ञापन-प्रतिबन्ध, आयकर विभाग के छापे जैसे हथियार तैयार हैं.

अभिव्यक्ति की आज़ादी दरअसल पहली आज़ादी होती है क्योंकि वह सिर्फ अपने विचारों को कहने-लिखने से आगे अपनी तरह से रहने-जीने-सोचने, खाने-पीने, प्रेम करने, सपने साकार करने और बड़ी हद तक अपने ढंग से मरने की छूट तक जाती है. हमारा सोचना-बोलना ही नहीं, रहना और जीना भी मानवीय अभिव्यक्ति का हिस्सा है. उनके बगैर कोई भी आज़ादी अधूरी होगी. लेकिन आज इन सभी चीज़ों पर कोई न कोई पाबंदी लगी हुई है या लगाये जाने की मांग उठाई जाती है. किसी दूसरे धार्मिक आचरण को मानने वाले व्यक्ति पर ‘जय श्रीराम’ कहने के लिए दबाव डालना उसकी अभिवयक्ति का गला घोटना है जो हिंदी अंचलों में एक चलन जैसा बनता जा रहा है.


आज़ादी के खात्मे के निशान हमारी हिंदी पर भी साफ़ दिखते हैं. राजनीतिक दलों और ख़ास तौर से सत्ताधारी दल ने करीब पचास करोड़ जनता की इस भाषा को भयानक रूप से प्रदूषित और विकृत कर दिया है. आम चुनावों के समय ख़बरें छपी थीं कि यह सबसे ज्यादा गंदी, गिरी हुई भाषा में लड़ा गया चुनाव है. शिखर पर बैठे हुए लोग जैसा आचरण करते हैं, जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह समाज के सभी स्तरों और बिलकुल नीचे तक पंहुचती है और लोगों को उससे भी ज्यादा खराब भाषा और व्यवहार के लिए उकसाती है. मसलन, जब सत्ताधारी कहते हैं कि वे अपने शत्रुओं से ‘निपट’ लेंगे तो उनके अनुयायी सचमुच शत्रुओं से निपटने में लग जाते हैं और अगर कोई शत्रु न हो तो उसे ईजाद भी कर लेते हैं और इस तरह भाषा की हिंसा समाज की हिंसा बन जाती है.


यह एक गंभीर अध्ययन का विषय हो सकता है कि राजनीतिक दलों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली आक्रामक-हिंसक भाषा ने किस तरह समाज में हिंसा को प्रसारित करने और बढाने का काम किया है. लोकसभा चुनावों के दौरान शासक वर्ग ने खुले आम जिस तरह ‘हम देख लेंगे’, ‘घर में घुस कर मारेंगे’, ‘मुझसे मत उलझना, मेरा नाम फलां है’, ‘मैं छोडूंगा नहीं’ जैसी गुंडा-भाषा को स्वीकृति दी वह हिंदी को विकृत और अमानवीय बनाने का काम था. दरअसल राजनीति भाषा के वासतविक अर्थों को ख़त्म करने और उन्हें दूसरे, अक्सर विपरीत अर्थ देने और विरूपित करने का काम काफी समय से कर रही है. नतीजतन, अब वह हैवानों को इंसान कह कर बुलाने लगी है. बहुत पहले रघुवीर सहाय ने हिंदी को अंग्रेज़ी के पुराने, उतरे हुए कपडे पहनने वाली ‘दुहाजू की बीवी’ कहा था. उनका मुख्य सरोकार यह था कि जिस हिंदी को जनता के संघर्षों की जुबान बनना था वह अंग्रेजी की गुलाम बना दी गयी है. बाद में वे इस हताश निष्कर्ष पर पंहुचे कि ‘हम हिंदी की लड़ाई हार चुके हैं.’ रघुवीर सहाय को अपनी भाषा के प्रति जितना गहरा प्रेम था उतनी ही गहरी चिंता थी. आज अगर वे होते तो क्या लिखते, इसकी कल्पना की जा सकती है. अभिव्यक्ति के सबसे बड़े माध्यम को भ्रष्ट और विकृत करना भी आज़ादी को छीनने का ही एक रूप है जो हिंदी में इन दिनों खूब नज़र आ रहा है.

भाषा के साथ हुई त्रासदी के के बारे कवि आलोकधन्वा ‘सफ़ेद रात’ कविता में लिखते हैं:’

‘बम्बई हैदराबाद अमृतसर और श्रीनगर तक हिंसा और हिंसा की तैयारी और हिंसा की ताकत

बहस चल नहीं पाती हत्याएं होती हैं फिर जो बहस चलती है उनका भी अंत हत्याओं में होता है भारत में जन्म लेने का मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था अब वह भारत भी नहीं रहा जिसमें जन्म लिया.’ ये पंक्तियाँ हमारी आज़ादी और भाषा के लिए एक शोकगीत हैं.


-मंगलेश डबराल हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं.

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