प्रतीकों से प्रेम और मूल्यों से हिक़ारत के दौर में अंबेडकर
इस दौर में जब कोशिश चल रही है कि लोकतन्त्र को भी हाँ में हाँ मिलाने तक महदूद कर दिया जाये तब डॉ.अंबेडकर द्वारा दिया गया लोकतन्त्र का यही सूत्र है, जिसे सर्वाधिक मज़बूती से पकड़ कर रखने की ज़रूरत है, संरक्षित और विस्तारित करने की ज़रूरत है.
-इन्द्रेश मैखुरी

डॉ भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल 1891- 06 दिसंबर 1956) को देश में संविधान निर्माता और दलित समुदाय के नेता के तौर पर याद किया जाता है. बहुदा यह कोशिश होती है कि उन्हें जाति के ख़ास ख़ांचे में फ़िट कर सीमित कर दिया जाये. लेकिन अगर अंबेडकर के सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन, लेखन और वक्तव्यों को देखें तो पाएंगे कि वे जाति विशेष नहीं बल्कि उत्पीड़ित जन-गण के सरोकार वाले नेता, चिंतक, नियोजक थे. जो भी मेहनतकश था, वंचित था, उत्पीड़ित था, अंबेडकर उसके पक्ष में खड़े थे. हालांकि यह भी सच है कि अंबेडकर दलित परिवार में जन्मे और भरपूर श्रम करने के बावजूद वंचना और उत्पीड़न भी दलितों के हिस्से में ही सर्वाधिक आया, इसलिए उस तबके की लड़ाई अंबेडकर आजीवन लड़ते रहे. लेकिन दलितों के साथ ही मज़दूर, किसान, महिलाएं उनके राजनीतिक चिंतन और कार्यवाहियों का अंग बने रहे. मज़दूरों के संघर्ष का ख़ाका खींचेते हुए अंबेडकर कहते हैं, “मेरी राय में इस देश के श्रमिकों को दो दुश्मनों से लड़ना पड़ेगा-ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद.” ब्राह्मणवाद को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं कि इस शब्द से उनका आशय सिर्फ ब्राह्मण जाति की सत्ता अधिकार और हित संबंध ही नहीं हैं, बल्कि उनकी नज़र में ब्राह्मणवाद के मायने हैं “आजादी, समता और बंधुत्व का अभाव.” (1) मार्क्स और एंग्ल्स द्वारा दिये गए नारे “ दुनिया के मजदूरो एक हो” का हवाला देते हुए अंबेडकर कहते हैं, “सभी कामगार एक हैं और उनका वर्ग एक है, यह नारा आदर्श है और इसे प्रत्यक्ष जीवन में लाना है.” उसका रास्ता वे बताते हैं कि “वंश और धर्म के कारण एक कामगार अगर दूसरे कामगार का दुश्मन बन रहा हो तो उनकी एकता में बाधा उत्पन्न करने वाला ये कारण नष्ट करना ही कामगारों की एकता का सही रास्ता है.” (2) साफ़ तौर पर भारत में मज़दूर और मज़दूर के बीच एकता में बाधक के तत्व के रूप में जातीय भेदभाव को अंबेडकर चिन्हित करते हैं और मज़दूरों की वर्गीय एकता के लिए इस भेदभाव के ख़ात्मे पर ज़ोर देते हैं. अंबेडकर मजदूर वर्ग को सिर्फ मज़दूर संगठनों तक ही सीमित नहीं रखना चाहते बल्कि मज़दूर वर्ग के राजनीति में हस्तक्षेप के वे पैरोकार हैं. मजदूरों को संबोधित करते हुए, वे कहते हैं, “वर्तमान मजदूर पद्धति को ख़त्म कर उसकी जगह समता, आज़ादी और बंधुत्व के नए सिद्धांतों पर आधारित नयी पद्धति की स्थापना करना आपका उद्देश्य होना चाहिए. इसका मतलब समाज की पुनः रचना और इस तरह की पुनः रचना समाज से करवाना कामगार वर्ग का प्राथमिक कर्तव्य है.”(3)

इस वक्तव्य से साफ़ है कि समाज परिवर्तन की लड़ाई के मुख्य घटक के तौर पर अंबेडकर मजदूर वर्ग को देख रहे थे. मज़दूर वर्ग, उनके लिए इतना अहम था कि इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के बाद जब उन्होंने 1942 में ऑल इंडिया शिड्यूल कास्ट फ़ैडरेशन बनाया तो उसके लक्ष्य एवं उद्देश्यों में “अपने आप को कृषक वर्ग, भूमिहीन मजदूरों फ़ैक्ट्री कामगारों और अन्य मजदूर अर्जकों को संगठित करने में लगाना” भी एक था. इससे समझा जा सकता है कि अंबेडकर अपनी राजनीति किनके लिए और किनके साथ करना चाहते थे. इसी तरह किसान के सवाल उनकी राजनीति का प्रमुख अंग हैं. ज़मींदारी उन्मूलन के लिए अंबेडकर आज़ादी से पहले से अभियान चलाते रहे. 1936 में डॉ अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई. कृषि उत्पादकता बढ़ाना और किसानों को गरीबी से उबारना इस दल के एजेंडे में था. “राज्य और अल्पसंखयक : उनके अधिकार और स्वतंत्र भारत के संविधान में उन्हें कैसे हासिल करें” नामक पुस्तक जो संविधान सभा से पहले अंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान ही था, उसमें भी कृषि को उद्योग घोषित करने, उसके राष्ट्रीयकरण करने और बराबर के फ़ार्मों में बाँट कर सामुदायिक खेती करवाने की योजना अंबेडकर पेश करते हैं. महिलाओं के अधिकारों के मामले में तो डॉ अंबेडकर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र ही दिया था. क़ानून मंत्री के रूप में, वे हिन्दू कोड बिल पारित करवाना चाहते थे. यह बिल महिलाओं को विवाह की स्वतन्त्रता, संपत्ति का अधिकार, तलाक़ का अधिकार जैसे अधिकार देने के लिए था. लेकिन इस क़ानून को पास करवाने के प्रयास में अंबेडकर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अलग-थलग पड़ गए और अंततः उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. उनका यह मत था कि जाति और सगोत्रीयता भारतीय पितृसत्ता के आधार हैं. अंबेडकर के संघर्षों में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. 1927 में मनु स्मृति दहन में 50 महिलाएं शामिल थीं तो 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर सत्याग्रह में 500 से अधिक महिलाएं शामिल हुईं, जिनमें से कई गिरफ़्तार भी हुईं. 1942 में हुए दलित महिला सम्मेलन में भी बड़ी संख्या में महिलाओं ने हिस्सेदारी की. अंबेडकर ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय लोकतन्त्र का चेहरा गढ़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. हम जिस दौर में हैं, उसमें संविधान और लोकतन्त्र के प्रति एक गहरे तिरस्कार का भाव उनके भीतर साफ दिखता है, जो इसी संविधान और लोकतन्त्र के कंधे पर चढ़ कर सत्ता के शिखर तक पहुंचे हैं. ऐसे में यह जानना समीचीन होगा कि लोकतन्त्र और संविधान को अंबेडकर ख़ुद कैसे देखते-समझते थे. अंबेडकर संविधान को थॉमस पाइन के हवाले से समझाते हुए कहते हैं : “संविधान सरकार द्वारा किया गया कार्य नहीं बल्कि लोगों द्वारा सरकार बनाने का कार्य है और संविधान रहित सरकार, अधिकार रहित शक्ति के समान है.”(4) झंडे से प्रेम और संविधान के प्रति हिक़ारत और अवमानना के इस दौर के हुक्मरानों को अंबेडकर द्वारा उद्धृत उक्त परिभाषा की कसौटी पर कसिए और देखिये कि कहाँ पर खड़े हुए मिलते हैं. अंबेडकर तो संवैधानिक नैतिकता की भी बात करते हैं. इस संदर्भ में वे कहते हैं कि “हमारा संविधान वैध प्रावधानों का कंकाल या ढांचा भर है. इस कंकाल का मांस होता है संवैधानिक नैतिकता.” (5) संवैधानिक नैतिकता के संदर्भ में अमेरीका की स्वतन्त्रता के नेता और पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि वॉशिंगटन ने अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव दूसरी बार लड़ने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि हमने आनुवांशिक राजसत्ता के लिए संविधान नहीं बनाया. येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के इस दौर में सोचिए तो कैसी होती होगी संवैधानिक नैतिकता ! लोकतन्त्र को अंबेडकर कैसे परिभाषित करते हैं, यह समझना लोकतन्त्र पर बढ़ते हमले और लोकतान्त्रिक संस्थाओं के क्षरण के दौर में बेहद महत्वपूर्ण है. लोकतन्त्र को परिभाषित करते हुए अंबेडकर कहते हैं, “लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में बिना ख़ून ख़राबे के क्रांतिकारी बदलाव लाने वाली शासन व्यवस्था को प्रजातन्त्र कहते हैं. प्रजातन्त्र की यही सच्ची कसौटी है.”(6) वे कहते हैं “मेरी राय में प्रजातन्त्र को सफलता से लागू होने की पहली शर्त यह है कि समाज में भयानक विषमता नहीं होनी चाहिए. शोषित वर्ग नहीं होना चाहिए, दमित वर्ग नहीं होना चाहिए जैसा भारत में है.”(7) सच्चा लोकतन्त्र बनने की यह कसौटी है और यह चुनौती तो हमारे सामने लोकतन्त्र बनने के 70 सालों के बाद भी जस की तस खड़ी है बल्कि चुनौती और विकट हो गयी है. अंबेडकर कहते हैं कि “सामाजिक विषमता प्रजातन्त्र के विनाश के कारणो में से प्रमुख है.”(8) शायद जाति-धर्म और संपदा की विषमता ही है जो लोक को भी और लोकतन्त्र को भी निरंतर ख़तरे की ज़द में रखती है. वे “कानून और प्रशासन के संदर्भ में सबके प्रति समानता” को लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक मानते हैं. परंतु सामाजिक-आर्थिक विषमता की खाई कायम रहेगी तो क़ानून और प्रशासन में समानता कैसे आएगी और यह समानता नहीं आएगी तो लोकतन्त्र की सफलता तो संदिग्ध ही बनी रहेगी. अंबेडकर कहते हैं कि “प्रजातन्त्र के सफल कामकाज़ के लिए आवश्यक दूसरी बात है विपक्ष का अस्तित्व.”(9) वे तो यहाँ तक कहते हैं कि मूल अधिकारों की सर्वोत्तम गारंटी संसद में एक अच्छे विपक्ष का होना है और ऐसा होने पर सरकार अपना व्यवहार उचित रखेगी.” भारतीय लोकतन्त्र में विपक्ष की स्थिति और अंबेडकर के कथन की रोशनी में लोकतन्त्र और संविधान पर आसन्न संकट को साफ़ तौर पर महसूस किया जा सकता है. अंबेडकर बताते हैं कि “प्रजातन्त्र के मायने हैं ना कहने की शक्ति.”(10) इस दौर में जब कोशिश चल रही है कि लोकतन्त्र को भी हाँ में हाँ मिलाने तक महदूद कर दिया जाये तब डॉ.अंबेडकर द्वारा दिया गया लोकतन्त्र का यही सूत्र है, जिसे सर्वाधिक मज़बूती से पकड़ कर रखने की ज़रूरत है, संरक्षित और विस्तारित करने की ज़रूरत है. संदर्भ:
आजादी समानता और बंधुभावना पर आधारित नयी पद्धति श्रमिक संगठन का लक्ष्य हो,बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय,पी.डी.एफ,पृष्ठ-91, खंड: 39
पूर्वोक्त, पृष्ठ 92
पूर्वोक्त,पृष्ठ 97
“संवैधानिक कानून का स्वरूप व दायरा” बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय,पी.डी.एफ,पृष्ठ 93,खंड 36
प्रजातन्त्र में कामकाज की कुछ पूर्व सुनिश्चित शर्तें, बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय,पी.डी.एफ,पृष्ठ 293,खंड 40
प्रजातन्त्र में कामकाज की कुछ पूर्व सुनिश्चित शर्तें, बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय,पी.डी.एफ,पृष्ठ 286,खंड 40
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पूर्वोक्त आभार प्रदर्शन: इस लेख में प्रयुक्त संदर्भों के लिए https://velivada.com/ का आभार,जिन्होंने भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा प्रकाशित बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय के सभी खंडों को पी.डी.एफ फॉर्म में विभिन्न भाषाओं में अपनी साइट पर अपलोड किया है.
(आलेख इंद्रेश मैखुरी के ब्लॉग नुक़्ता-ए-नज़र से अनुमति के साथ साभार प्रकाशित किया गया है.)