डायरी: और, तख़्ती टूट गई!
एक दोस्त थी मेरी जो मेरा सम्बल थी, मुझे लगता था कि वो मुझे सुनती है. मैं उससे घंटो बाते करती थी. एक दिन उससे बातें करते देख नानी हंस पड़ी और बोली ''ए सत्ते तेरी लड़की पागल है देख तख्ती से बात करती है''. मेरी तख्ती की बनावट मेरे भीतर आज भी ताज़ा है. लेकिन उसे दर्शन मास्टरनी ने छीन लिया.
- श्वेता सिंह

"अरे! ये चुहड़ो की लड़की इतना अच्छा कैसे पढ़ती है, कहा से सीखा रे तूने, कौन पढ़ाता है तुझे घर में" ये मेरी अध्यापिका के शब्द थे मेरे लिए. वह मुझे चुहड़ो की लड़की कहा करती थी. मेरी कक्षा में उच्च जातियों के बच्चों की संख्या ज़्यादा थी.
दलितों के मोहल्ले से कम ही बच्चे स्कूल जाया करते थे. कुछ गरीबी के कारण स्कूल तक नहीं पहुँच पाए तो कुछ सुबह जल्दी अपने माता पिता के साथ कूड़ा उठाने या जाटों और ब्राह्मणो के घर सफाई करने निकल जाया करते थे. गाँव के प्राथमिक विद्यालय में दलितों के मोहल्ले से कुछ ही बच्चे पहुंचे और उनमे से एक मैं भी थी. नीची जातियों के बच्चों को हमारी टीचर अपने चश्में से यूँ झाका करती थी, जैसे एक दिन दुनिया से सभी दलितों को ख़त्म कर देगी.
स्कूल में दलितों के मोहल्ले से ज़्यादातर चुहड़ो के बच्चे थे. चुहड़ो के बच्चों को प्रताड़ित करने के मौक़े वह ढूंढ ही लेती थी. मुझे मारने के बहाने तो उसे आसानी से मिल जाते थे लेकिन जब भी मैं अपनी किताब से कोई पाठ पढ़ती तो वो मेरी जात को भूल कर मेरी तारीफ़ करती... शायद एक ही प्रतिभा थी मेरे भीतर तरीक़े से पाठ पढ़ने की और यह तरीका आज मुझे रेडियो की दुनिया में ले आया.
हिंसा और नफ़रत के बीच रहकर मेरी झिझक और डर इतना बढ़ गया था कि मैं कभी यह साबित ही नहीं कर पायी कि तरीके से पाठ पढ़ने के अलावा भी मुझमे और भी प्रतिभा है इसीलिए मैं आज भी उस मुकाम पर पहुँचने के लिए मशक्कत कर रही हूँ जहाँ मेरे कई साथी पहुँच चुके हैं... मेरी अध्यापिका जब चाहती मुझे बेरहमी से मारती, कभी तख़्ती से तो कभी ज़मीन पर घसीट कर. उच्च जातियों के बच्चे उसके लाडले हुआ करते थे.
जाटों की एक लड़की सीमा को वह हम सभी चुहड़ो के बच्चों के सामने उदाहरण बनाकर पेश करती ''देखो रे तुम नालायक, इस लड़की जैसा बनो''. सीमा बहुत उजले कपड़े पहनती थी जाटों के अमीर घर की लड़की थी. हमारे माता पिता सुबह ही सड़को पर कूड़ा साफ़ करने निकल जाया करते थे. हमारे कपड़े उजले ना सही लेकिन मन बहुत उजले थे. अपने मैले कपड़ो में तख्तियों को हवा में लहराते, रेत के टीलों में लोट पोट होकर स्कूल पहुँचते थे. हमारी टीचर का नाम था 'दर्शन'. स्कूल में उसके दर्शन कर हमारी लहराती तख्तियां शांत हो जाती. दर्शन मैडम को देख कर मैं काँप जाया करती थी. उनका खौफ था मेरे जेहन में. उन्हें देख कर मैं डरी सहमी सी कक्षा के एक कौने में दुबक जाया करती थी.
कभी-कभी हमें कक्षा के बाहर पेड़ के नीचे पढ़ाया जाता. दर्शन मैडम की दहाड़ से बचने के लिए मैं नज़रे बचाकर दूसरे पेड़ के नीचे अपनी जगह तलाश लेती. लेकिन उनकी पैनी नज़रों से मैं बच नहीं पाती वो मेरी शर्ट की कॉलर पकड़ खींच कर मुझे दूसरे दलित बच्चों के साथ बैठाती. मेरी अध्यापिका की दहशत मेरे दिल मे इस तरह बैठ गई कि मैंने सिर उठाकर देखना ही छोड़ दिया. मैं अक्सर नीचे गर्दन किए रहती जब भी वो मुझे सिर उठाने के लिए कहती तो मैं चाहकर भी तरेरती आँखों में न देख पाती और फिर उसे मुझे मारने का एक और मौका मिल जाता.
ऊँची जातियों के उजले कपड़े पहनने वाले बच्चों से दोस्ती करने की चाहत थी मेरी लेकिन वे मुझे ''ए चुहड़ो की'' कहकर दूर भगा देते. दलितों के अपने समूह में भी मेरा कोई दोस्त नहीं था. एक दोस्त थी मेरी जो मुझे सम्बल बनाती थी, मुझे लगता था कि वो मुझे सुनती है मैं उससे घंटो बाते करती थी. एक दिन उससे बातें करते देख नानी हंस पड़ी और बोली ''ए सत्ते तेरी लड़की पागल है देख तख्ती से बात करती है''. मेरी तख्ती की बनावट मेरे भीतर आज भी ताज़ा है. लेकिन उसे भी दर्शन मास्टरनी ने छीन लिया.
स्कूल से घर लौटकर मैं रोज़ाना अपनी तख़्ती पर बड़े उत्साह के साथ मुल्तानी मिट्टी मलती और उसे सूखने के लिए रख देती फिर इंतज़ार करती अपनी मुल्तानी मिट्टी वाली चमकती हुई तख़्ती को देखने के लिए. मुझे याद है मेरी तबियत धीरे धीरे बिगड़ने लगी. उन दिनों मैं घर में होने वाली हर हिंसक घटना और मेरी अध्यापिका के दहशत में जी रही थी किसी को कह न पाई कि मैं कमज़ोर पड़ रही हूँ.
एक दिन स्कूल से घर आकर मैं सो गई बहुत देर तक मेरी आँख ही न खुली, मेरा बदन तप रहा था. किसी ने नींद से जगाया शायद वो नानी ही थी वही अक्सर मुझे जगाती थी और कहा चल जल्दी से जा दूध लाना है. दूध लेने के लिए मैं जाटों के मोहल्ले में जाया करती थी, दूध देने वाला आदमी या औरत जो भी मौजूद होते दूसरे लोगों को मुस्कुरा कर दूध देते और मैं जैसे ही उनके पास पहुंचती मुझे फटकार मिलती "ए चल दूर हट, तुम निची जाती के लोग दूर खड़े हुए करो, चल अपना बर्तन यहां रख दे, इसमें डाल दूंगी ले जाना".
जब घर लौटी तो धड़ाम से चारपाई पर गिर पड़ी उस दिन मैं अपनी तख़्ती पर मुल्तानी मिट्टी न मल सकी...मेरा शरीर तप रहा था , बुखार बढ़ता जा रहा था...बहुत छोटी थी तीसरी कक्षा में पढ़ती थी लेकिन किसी को बिन बताए दूसरे दिन स्कूल पहुंच गई. दर्शन मास्टरनी ने सबकी तख्तियों को देखना शुरू किया. वह हर रोज़ तख्तियां देखा करती थी जिसकी तख्ती पर मुल्तानी मिटटी न लगी होती उस पर गुर्राती.
हम सब कतार में खड़े थे, जब वो मेरे पास पहुंची तो मेरे तख़्ती पर एक दिन पहले के काली श्याही से छपे अक्षर ही थे ये देख वो चिल्ला पड़ी "ये क्या है मूर्ख". वो मेरी तरफ़ देख कर गुर्राई. मेरी तख्ती को मेरे हाथो से छीनकर तख़्ती से ही मुझे मारना शुरू कर दिया... मैंने अपनी आंखों को अपने हाथों से छिपा लिया... और मार खाती रही... बुखार की वजह से मैं कमज़ोर पड़ रही थी खड़ी नही हो पा रही थी, मेरा शरीर कांप रहा था... तख़्ती के वार इतने ज़ोर के थे कि मेरी तख़्ती जो मेरी दोस्त थी उसके दो टुकड़े हो गए ,मेरी पीठ पर ज़ख्म हो चुके थे, तख़्ती के आखिरी वार के साथ मेरी तख़्ती टूटी और मैं ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ी, तड़पते हुए. मेरी तख़्ती को मेरी अध्यापिका ने दूर फेंकते हुए सब ऊंची जाति की लड़कियों को कहा "पड़ी रहने दे इसे ज़मीन पर, कोई नही उठाएगा इस चुहड़ो की लड़की को''.
श्वेता रेडियो ब्रॉडकास्टर हैं.
बीबीसी और ऑल इंडिया रेडियो जैसे संस्थानों के साथ जुड़ी रही हैं.