कोराना काल: नफ़रत क्यों झेलता है पूर्वोत्तर?
कोरोना की इस महामारी के दौर में एनसीआर और देश के अलग-अलग कोनों में रह रहे पूर्वोत्तर भारत के लोगों पर नस्लीय टिप्पणी और दुर्व्यवहार की कई खबरें आई. सोचिए संकट के इस समय अगर घर से इतनी दूर, परिवार से अलग रह रहे आपके परिजनों के साथ, अपने ही देश में अगर इस तरह का बर्ताव हो तो आपको कैसा लगेगा?
- उमेश पंत

एनसीआर में फँसे पूर्वोत्तर भारत के क़रीब 1300 यात्रियों को लेकर नागालैंड के दीमापुर जा रही स्पेशल ट्रेन को बिहार के दानापुर में घेर लिया गया. ट्रेन के शीशे तोड़ने की कोशिश की गई. अंदर बैठे पूर्वोत्तर के यात्रियों को गाली भी दी गई. कई लोग जबरन ट्रेन में चढ़ गए. यह सब मुंह अंधरे सुबह के चार बजे हुआ.
ख़बर के मुताबिक़ ऐसा करने वाले बिहार के प्रवासी मज़दूर थे. सोचिए अंदर बैठे लोगों में कैसा डर का आलम रहा होगा, उनमें बच्चे, महिलाएं, बुज़ुर्ग सब शामिल रहे होंगे. यही अगर हमारे-आपके परिवार के साथ हो तो?
यही मज़दूर फिर पूर्वोत्तर के इलाकों में मज़दूरी करने जाएंगे. वहां के चाय बागानों या कोयले की खदानों में रोज़गार की तलाश करेंगे. यह उम्मीद भी करेंगे कि उनके साथ पूर्वोत्तर के लोग अच्छे से पेश भी आएं.
दिक्कत यह है कि हमें तस्वीर के बहुत छोटे हिस्से को देखने की आदत है. जो हमारी मौजूदा लोकेशन है हम उससे बहुत आगे देख ही नहीं पाते.
मौजूदा समय में यह देश-दुनिया इतनी घुली मिली है कि कौन, कहाँ, किससे, कैसे जुड़ा है यह समझना बहुत आसान नहीं है. बिहार में आप जो कर रहे हैं, कल उसके परिणाम पूर्वोत्तर में दिख सकते हैं. ठीक उसी तरह पूर्वोत्तर में जो आप करेंगे उसके परिणाम बिहार में. उत्तर भारत के लोगों के प्रति नस्लीय और भाषाई भेदभाव एक पूरा इतिहास पूर्वोत्तर का भी रहा है, इस तथ्य को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता.
इस मामले में गलती रेलवे की भी है. जो स्पेशल ट्रेन है, जिसे सीधे दीमापुर पहुँचना था वह बिहार में कई स्टेशनों पर रुकी और 16 घंटा देरी से अपने गंतव्य पर पहुँची. सम्भव है बिहार में, भीषण गर्मी के बीच रेलवे स्टेशन पर इंतज़ार कर रहे प्रवासी मज़दूरों को यह जानकारी न हो कि यह ट्रेन उनके लिए नहीं है. उन्हें यह भरोसा भी न मिला हो कि उनके लिए भी ट्रेन आएगी जो उन्हें उनके घर ले जाएगी. खबरों के मुताबिक़ यह मज़दूर कटिहार और खगरिया जाना चाहते थे और अगली ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे.
तय है कि महामारी के इस आलम में इस भय, असंतोष और अधैर्य को अदूरदर्शी नीतियों और अव्यवस्थाओं ने हवा दी है. ऐसे में बतौर नागरिक अगर हम भी अपना आपा खो देंगे तो यह स्थिति और भयानक ही होती जाएगी.
कोरोना की इस महामारी के दौर में एनसीआर और देश के अलग-अलग कोनों में रह रहे पूर्वोत्तर भारत के लोगों पर नस्लीय टिप्पणी और दुर्व्यवहार की कई खबरें आई. सोचिए संकट के इस समय अगर घर से इतनी दूर, परिवार से अलग रह रहे आपके परिजनों के साथ, अपने ही देश में अगर इस तरह का बर्ताव हो तो आपको कैसा लगेगा?
सोचने की बात है कि एक-दूसरे के प्रति यह नफ़रत आख़िर आती कहाँ से है? यह व्यवहार बड़ी सामाजिक प्रवृत्ति का हिस्सा है जिसे उभरने और पनपने देने की अपनी एक बड़ी राजनीति है. इस प्रवृत्ति का फ़ायदा भले ही चुनिंदा लोगों को हो लेकिन नुकसान किसी न किसी रूप में हम सबको होता है.
यह प्रवृत्ति एक बार बन गई तो यह आज पूर्वोत्तर के लोगों के साथ हो रहा है, कल पलटकर कहीं और से आपके साथ भी होगा. कोरोना के दौर में भेदभाव का यह वाक़या धर्म के नाम पर शुरू हुआ. फिर इसी दौर में कभी अस्पतालों में अपनी जान जोखिम में डाल रहे चिकित्सकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें आई तो कभी घर लौट रहे प्रवासियों के साथ. अब पूर्वोत्तर भारत के प्रवासी भी इसी प्रवृत्ति के शिकार बन रहे हैं.
पूर्वोत्तर की यात्राओं के आधार पर मेरा निजी अनुभव यह है कि खान-पान, रहन-सहन, भाषाई और सांस्कृतिक भिन्नता की वजह से पूर्वोत्तर के बारे में शेष भारत में एक खास काल्पनिक छवि है. लेकिन आप वहाँ जाएंगे तो वहां के लोगों की सरलता, उनके अपनत्व और उनकी आवभगत के आप मुरीद होकर लौटेंगे. पर इसके लिए आपको बनी-बनाई काल्पनिक छवियाँ उतार कर फेंकनी होंगी. अपने पूर्वग्रहों को परे रखना होगा. यकीन मानिए जब आप भावनाओं को समझना और उनका सम्मान करना सीख जाते हैं तो चेहरे-मोहरे और भाषा की भिन्नताएँ कोई मायने नहीं रखती.
मानवता के इतिहास में हमने बड़ी-बड़ी महामारियों को हराया है. लेकिन यह बिना बड़े दिल और मानवीय मूल्यों के असम्भव है. जो स्थितियाँ हैं उनमें आज नहीं तो कल हममें से कोई भी रिसीविंग एंड पे हो सकता है. फिलहाल हम सब एक ऐसी ट्रेन में सवार हैं जो एक अनिश्चित मंज़िल की तरफ़ बढ़ रही है और कभी भी पटरी से उतर सकती है. मंज़िल चाहे जो भी हो लेकिन इतना तो तय है कि यह सफर हम सब को साथ ही तय करना है और यह बिना आपसी मेल-जोल के सम्भव नहीं है.