दर्सगाहें : गौहर रज़ा की नज़्म
जेएनयू के छात्रों के समर्थन में शायर और वैज्ञानिक गौहर रज़ा की नज़्म-
दर्सगाहों पे हमले नए तो नहीं इन किताबों पे हमले नए तो नहीं इन सवालों पे हमले नए तो नहीं इन ख़यालों पे हमले नए तो नहीं.
गर, नया है कहीं कुछ, तो इतना ही है तुम नए भेस में लौट कर आए हो तुम मेरे देस में लौट कर आए हो पर है सूरत वही, और सीरत वही.
सारी वहशत वही, सारी नफ़रत वही किस तरह से छुपाओगे पहचान को गेरुए रंग में छुप नहीं पाओगे दर्सगाहों पे हमले नए तो नहीं.
हम को तारीख़ का हर सफ़ा याद है टक्शिला हो के नालंदा तुम ही तो थे मिस्र में तुम ही थे, तुम ही यूनान में रोम में चीन में, तुम ही ग़ज़ना में थे.
अलाबामा पे हमला हमें याद है बेल्जियम में तुम्हीं, तुम ही पोलैंड में दर्सगाहों को मिस्मार करते रहे. जर्मनी में तुम्हारे क़दम जब पड़े
तब किताबों की होली जलाई गई वो चिली में क़यामत के दिन याद हैं दर्सगाहों पे तीरों की बौछार थी तुम ही हो तालिबान, तुम ही बोकोहराम
तुम ने रौंदा है सदियों से इल्म-ओ-हुनर हम को तारीख़ का हर सफ़ा याद है. तुम तो अक्सर ही मज़हब के जामे में थे फिर ये क्यों है गुमाँ, आज के दिन तुम्हें
धर्म की आड़ में, छुप के रह पाओगे रौंद पाओगे सदियों की तहज़ीब को हम को तारीख़ का हर सफ़ा याद है दर्सगाहों पे हमले हैं जब जब हुए
फिर से उट्ठी हैं ये राख के ढेर से जब जलायी हैं तुम ने किताबें कहीं हर कलाम बन गया, परचम-ए-इंक़लाब. आज की नस्ल उठ्ठी है परचम लिए
हैं ये वाक़िफ़ तुम्हारे हर एक रूप से तुम को पहचानती है हर एक रंग में
इस नई नस्ल को सारे ख़ंजर परखने की तौफ़ीक़ है
इस नई नस्ल को दस्त-ए-क़ातिल झटकने की तौफ़ीक़ है.
- गौहर रज़ा