कोरोना के इन संभावित वाहकों पर क्या किसी का ध्यान है?
कोरोनावायरस के ख़िलाफ़ जंग में तैनात कोरोना वॉरियर्स इनसे कैसे निपटेंगे यह चिंता में डालने की बात है क्योंकि इस सवाल ने अभी तक नीति नियंताओं के मष्तिस्क में दस्तक भी नहीं दी है.
- संजय रावत
दुनिया भर में कोरोना वायरस की पहेली अभी ठीक से सुलझ ही नहीं पाई है, इसीलिए सावधानी ही बचाव का एक मात्र विकल्प बन कर उभरा है. हर देश और देश के अलग-अलग राज्य अपने-अपने ज्ञान, विवेक और तकनीक से कोरोना से जीतने के लिए आगे-पीछे दौड़ ही रहे हैं. इस दौड़ में वही देश या वही राज्य थोड़ा आगे आ पाए हैं जो अपनी आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक स्थिति और सांस्कृतिक संरचना को समझ-जान कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं. कोरोना महामारी में यह तो साफ़ ही है कि इसके संक्रमण के लिए ऐसे रोगी आदर्श वाहक हैं जो चेतनाहीनता के चलते कहीं भी ख़ांसते, छींकते या अन्य तरीक़ों से संक्रमण फ़ैलाने में मददगार होते हैं। इसलिए कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को सबसे कारगर तरीक़ा मानकर दुनिया भर में सरकारों ने लॉकडाउन जैसे एहतियातन क़दम उठाए हैं। लेकिन लगता है कि दुनियाभर में एक ख़ास जमात की ओर किसी का ख़ासा ध्यान नहीं है जो इस संक्रमण को फ़ैलाने से सबसे बड़े वाहक हो सकते हैं। यह जमात है, स्मैक, हेरोइन जैसे गहरे नशों में डूबी, ख़ासकर युवा पीढ़ी, जिनकी आदतों के चलते इस संक्रमण के फ़ैलने की बहुत आशंका है. मनोवैज्ञानिक डॉ. युवराज पंत इस आशंका का आधार बताते हुए कहते हैं, ''पहली बात यह है कि खाँसी, छींक, आंखों और नाक से पानी निकलना, संक्रमण फ़ैलने के सबसे बड़े कारण हैं. इस तरह के गंभीर नशे के आदियों के यह प्रमुख लक्षण हैं. और दूसरी अधिक ख़तरनाक बात यह है कि नशे में होने के चलते यह एहतियात नहीं बरत सकते और ही ये किसी सामाजिक बैरियर या किसी भी तरह की मूल्य-मान्यताओं और नैतिकताओं को नहीं मानते.'' डॉ. पंत आगे कहते हैं, ''ऐसा इसलिए होता है कि ये नशा ना मिले तो इन्हें नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, मांसपेशियों में बहुत दर्द होता है जिससे ये चिढ़चिढ़े और हिंसक हो जाते हैं।'' डॉ. पंत आशंका जताते हुए कहते हैं कि अगर कोई भी स्मैक का नशेड़ी युवा कोरोना पोजेटिव हुआ तो स्थिति को क़ाबू करना ब`हुत मुश्किल हो जाएगा। ''अक्सर नशा कोई अकेले नहीं करता बल्कि नशेड़ी समूहों में इसे करते हैं। ऐसे में संक्रमण गुणात्मक दर से बढ़ सकता है। ऊपर से इनका तमाम बंधनों से मुक्त जीवन कोढ़ में खाज का काम करेगा। लॉक डाउन या सोशियल डिस्टेंसिंग तो इनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती क्योंकि नैतिकता का मामला गौण है और पिटाई का कोई असर इन पर होता नहीं है।'' इधर पिछले दो दशकों में उत्तराखंड में स्मैक, हेरोइन आदि को नशा जड़ें जमाता रहा है. स्मैक के आदी पहले मरीज़ की पुष्टि यहां सन् 1999 में हुई थी। यह गौला नदी में खनन कार्य करने वाला एक मजदूर था। हालांकि इस लत के शिकार लोगों की सटीक संख्या जानने का कोई ज़रिया नहीं है लेकिन उत्तराखंड के दूरस्त पहाड़ी ज़िलों में भी स्मैक आदि के नशे के मामले दर्ज किए गए हैं. शुरूआत में उत्तराखंड में सामने आने वाले इस तरह के नशेड़ियों की संख्या अधिकांशत: 30 से 40 वर्ष के युवाओं की रही. लेकिन पिछले कुछ समय से यह औसत 15 से 40 वर्ष के बीच आ गया। उत्तराखंड में हालात और ज़्यादा इसलिए चिंताजनक हैं कि राज्य सरकार के पास इस चुनौती से निपटने के लिए कोई ठोस 'मानसिक स्वास्थ नीति' नहीं बनी हैं. इससे जुड़े सटीक आकड़े और जानकारियां जुटाने का भी कोई साधन नहीं. नशा मुक्ति केंद्रों का कहना है कि कि सटीक ब्योरा संभवत: 'समाज कल्याण विभाग' के पास होगा। समाज कल्याण विभाग इससे अनभिज्ञता जताता है। स्वस्थ विभाग को ये प्रश्न ही पहेली जैसा लगता है। पुलिस प्रशासन के पास कुछ आंकड़े ज़रूर हैं लेकिन उन कुछ नशेडियों और तस्करों के जिन्हें पकड़ पाने में कामयाबी मिल पाई है। नैनीताल ज़िले के हल्द्वानी में दो राजकीय चिकित्सालयों के अलावा 4 नशा मुक्ति केंद्र हैं इनके आधार पर कोई सटीक विश्लेषण तो नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी कुछ महत्वपूर्ण बातों पर गौर किया जा सकता है। इन अस्पतालों में औसतन हर रोज एक स्मैक का एडिक्ट मरीज़ का आता है। यानी 6 अस्पतालों में स्मैक के 6 मरीज़ रोज़ाना मानें तो साल भर में करीब 2 हजार से ज्यादा मरीज़। ये है सिर्फ एक शहर की बात है। हांलाकि इसमें कुछ संख्या कुमाऊं के अन्य इलाक़ो से आए मरीज़ों की है पर ये आंकड़ा भी कम भयावह नहीं है, जिनकी तादात में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही हो । इस बानगी से उत्तराखंड के अन्य शहरों, गांवों और जिलों की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। डॉ युवराज पंत कहते हैं, 'कोई शक नहीं कि ऐसे पेसेंट्स कोरोना संक्रमण के लिए आदर्श वाहक हो सकते हैं. ऐसे में अगर स्मैक के किसी भी नशेड़ी को कोरोना का संक्रमण हो जाता है, हिंसक मगर एकाकी नशेड़ी ना ख़ुद जान पाएगा और ना ही किसी को उसके संक्रमण चक्र के बारे में कुछ पता चल पाएगा।'' कोरोनावायरस के ख़िलाफ़ जंग में तैनात कोरोना वॉरियर्स इनसे कैसे निपटेंगे यह चिंता में डालने की बात है क्योंकि इस सवाल ने अभी तक नीति नियंताओं के मष्तिस्क में दस्तक भी नहीं दी है। मुस्तैदी दिखाते हुए कई जगह स्वाभाविक मौत पर कोरोना के संक्रमण की आशंका के चलते पोस्टमार्टम तो किया जा रहा पर स्मैक के नशेडियों के पकड़े जाने पर उनका कोरोना टेस्ट किया गया हो ऐसी कोई ख़बर अब तक हमने नहीं सुनी।
संजय रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं.
उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में रहते हैं.