बस सुरेंद्र का नहीं पता...
तब 1991 गुज़र चुका था. मनमोहन सिंह की पूजा देवी लक्ष्मी के बराबर हो रही थी. भारत में धन वर्षा का दौर था. एमबीए-एमसीए का दौर था. कैट और सैट का दौर था. मैं सरकारी स्कूल में था और मेरी क्लास अपने ज़िले की सबसे अच्छी क्लास थी. आठवीं में उन दिनों हरियाणा बोर्ड हुआ करता था और नौवीं में हमारे सेक्शन में उन दिनों सबसे ज्यादा मेरिट वाले लड़के आए थे.
-विवेक आसरी
बात उन दिनों की है जब मेरे शरीर का हर अंग इंच के हिसाब से बढ़ रहा था. दिमाग़ भी. भूख़ भेड़िया हो गई थी. मैं ख़ूब खा रहा था और ख़ूब पढ़ रहा था. आठवीं क्लास के दौरान मैंने अपने स्कूल की नई-नई लाइब्रेरी में अद्भुत सुख खोजा था. प्रेमचंद, शेक्सपियर, दिनकर... मेरी टीचर मां के लाइब्रेरी इंचार्ज होने का फायदा मैं संग्रह-संग्रह उठा रहा था. तब 1991 गुज़र चुका था. मनमोहन सिंह की पूजा देवी लक्ष्मी के बराबर हो रही थी. भारत में धन वर्षा का दौर था. एमबीए-एमसीए का दौर था. कैट और सैट का दौर था. मैं सरकारी स्कूल में था और मेरी क्लास अपने ज़िले की सबसे अच्छी क्लास थी. आठवीं में उन दिनों हरियाणा बोर्ड हुआ करता था और नौवीं में हमारे सेक्शन में उन दिनों सबसे ज्यादा मेरिट वाले लड़के आए थे. वैसे पूरा स्कूल ही लड़कों का था. लड़कियों का स्कूल अगली सड़क पर था वे हमारे स्कूल के पीछे जिस सड़क से गुजरती थीं, उस पर हमारी क्लास की खिड़की खुलती थी. इसलिए ज्यादातर झगड़े खिड़की वाली सीट पर क़ब्ज़े को लेकर होते थे. मेरिट वाले लड़कों को झगड़े नहीं करने पड़ते थे क्योंकि वे इंग्लिश या मैथ्स में मदद के बदले सीट पा लेते थे. मेरिट वाले लड़के मैथ्स को मथा करते थे. कैट में पर्संटाइल के लिए मैथ्स सबसे ज़रूरी माना जाता था. पता नहीं कहां से ये अफवाह आई थी कि 10 सेकंड्स में एक सवाल हल करना होता है. हम लोगों में ‘शॉर्ट आन्सर टाइप’ और ‘मल्टीपल चॉइस ऑब्जेक्टिव क्वेश्चन्स’ का अभ्यास करने की होड़ लगी रहती थी. इस अभ्यास के लिए किताबों का भंडार उपलब्ध था. दुआ बुक सेंटर और भल्ला बुक्स पर लड़के लड़कियों की भीड़ यही किताबें खरीदती थीं. पूरी क्लास में शायद मैं अकेला लड़का था, जिसके बस्ते में कहानियों की कोई किताब या उपन्यास हुआ करता था. दसवीं में हमारे स्कूल में सबसे ज्यादा मेरिट आई थीं. टॉपर से लेकर टॉप 10 में हमारे स्कूल के कई लड़के थे. नाचीज़ रिजल्ट वाले दिन रोया था क्योंकि जिले में दूसरे नंबर पर आया था. हम ज़्यादातर मेरिट वाले लड़कों ने साइंस सब्जेक्ट्स लिए. आर्ट्स उन दिनों पढ़ाई में पिछड़ों का सब्जेक्ट था. दूसरे नंबर पर कॉमर्स वाले थे. एक कैटिगरी तो साइंस वालों से भी ऊपर थी. कॉम्बो. कुछ थे जिन्होंने मेडिकल-नॉन मेडिकल कॉम्बो लिया था. यानी वे मैथ्स और बायॉलजी दोनों पढ़ रहे थे ताकि इंजीनयर या डॉक्टर कुछ एक बन जाएं. साइंस वाले होनहारों की क्लास में ग्यारहवीं बारहवीं दो साल पागलपन का दौर गुजरा. आईआईटी या मेडिकल. तीसरे ऑप्शन पर विचार भी पाप था. हमारे सीनियर्स की चर्चा उनके सालाना पैकेज के लिए होती थी. जिसका जितना बड़ा पैकेज, उसका उतना बड़ा क़द. फलां को बस 10 लाख का पैकेज मिला. फलां 15 लाख में ही मान गया. फलां को तो अमेरिकन कंपनी फ़ाइनल ईयर में ही ले गई. छोटे शहर के माता-पिता अपने बच्चों की इन सफलताओं को सीना फुलाकर सुनाते थे. मां-बाप से सुनकर हम ये बातें अपने सहपाठियों को बताते. आईआईटी/सीईटी की तैयारी करते ट्यूशन ग्रुप्स में बस यही बातें होती थीं. कलेक्टरी का स्कोप कम हो रहा था. हम ख़बरें सुनते थे कि आजकल आईएएस भी सरकारी छुट्टी पर जाकर विदेश में एमबीए कर रहे हैं. उन्हीं दिनों ख़बर आई थी कि आईएएस आईपीएस में नौकरियां छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन्हें बहुत मोटा पैकेज देती हैं. उस साल हमारे छोटे से शहर में एक पुस्तक मेला आया. हम सब गए. स्टूडेंट्स की भीड़ कोने में रखी एक किताब को देखने के लिए उमड़ रही थी. उस किताब में बच्चे को जन्म देती एक महिला की तस्वीर थी. असली तस्वीर. पेंटिंग नहीं, फोटो. डॉक्टर बनने के लिए 12वीं में बायॉलजी पढ़ रहे लड़के भी बावले हुए रहते थे. हालांकि उस पुस्तक मेले में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब थी शिव खेड़ा की ‘जीत आपकी’. इस तरह की किताबें बेस्ट सेलर्स थीं. इन किताबों में सिखाया जाता था कि जीत के लिए किसी की परवाह ना करो. कोई तुम्हारे बारे में क्या सोचता है, इसकी परवाह ना करो. किसी को कुचलकर आगे बढ़ना है तो बढ़ जाओ. जीत के लिए बेरहमी बुरी नहीं है. स्वार्थी होना बुरा नहीं है. तुम सबसे बेहतर हो. जीत से बड़ा कुछ नहीं है. और सब जीतना चाहते थे. इसलिए अगर कोई मेरिट वाला लड़का कॉम्पटिशन की तैयारी के अलावा कोई किताब पढ़ता था तो वो मोटिवेशनल टाइप ही थी. और जीतने का अर्थ था सबसे मोटा पैकेज. रास्ता था एमबीए, एमसीए, आईआईटी, मेडिकल. सबके सब मनमोहन सिंह द्वारा बरसाए जा रहे धन में से ज़्यादा से ज़्यादा बटोर लेना चाहते थे. ज़िले की सबसे होनहार क्लास के मेरे ज्यादातर सहपाठी सफल रहे. कोई एमबीए करके मैनेजर हुआ तो कोई आईआईटी के बाद विदेश चला गया. किसी ने डॉक्टरी पढ़कर अपना बड़ा अस्पताल खोल लिया है तो कोई एचसीएल में सीनियर प्रोजेक्ट मैनेजर टाइप कुछ हो गया है. सबके सब बहुत अमीर हैं. बहुत सफल हैं. मुझे बस एक लड़के का नहीं पता. सुरेंद्र. दसवीं क्लास में हमारे साथ था. ड्रॉइंग में बहुत अच्छा था. कुछ भी देखकर काग़ज़ पर उतार देता था. ज्यों का त्यों. असल में अद्भुत. ड्रॉइंग टीचर का फेवरिट था. शेड्यूल कास्ट था तो उसकी फ़ीस माफ हो गई थी. इसलिए दसवीं कर रहा था. बहुत प्यारा सा लड़का था. मेरा अच्छा दोस्त था. मैं उसे मैथ्स के सवाल समझाया करता था. दसवीं के बाद मैं आईआईटी के सपने लेकर साइंस में चला गया. उसने शायद ग्यारहवीं में आर्ट्स ली थी. कुछ साल बाद मैं एक रिश्तेदार की शादी में गया तो वहां सुरेंद्र दिखा. वेटर की ड्रेस में. मैंने उसे पहचान लिया था लेकिन वो नजरें बचाकर गायब हो गया. तब से उसका पता नहीं. बाक़ी सफल दोस्तों में से सबका पता है. ज़्यादातर वॉट्सऐप पर भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए ज्ञान फॉर्वर्ड करते हैं.
विवेकआसरी वरिष्ठ पत्रकार हैं.
अभी सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) में रहते हैं.