यौन शिक्षा का भूत: #2 स्त्री का भोकाल
हर सामान्य स्त्री के पास एक गर्भाशय होता है, जिससे दो अण्डवाहिकाएँ (या अण्डवाहिनियाँ) निकलती हैं. इन अण्डवाहिकाओं के समीप उनके सम्पर्क में दो अण्डाशय रहते हैं. इन्हीं अण्डाशयों से प्रत्येक माह एक अण्डाणु सन्तान बनने हेतु अण्डवाहिनी से होता हुआ गर्भाशय को चलता है, इस आशा में कि रास्ते में कहीं भी उसकी शुक्राणु से भेंट हो सकती है. भेंट होगी, तो वे मिल जाएँगे. मिल जाएँगे, तो एक नया जीव बनेगा.
-khidki desk

मासिक धर्म में स्त्री ध्वंस धारण करती है. वह कुछ बनाती नहीं , आत्मसंहार करती है. अपने ही तन को विनष्ट कर वह चक्र-क्रम को आगे बढ़ाती है. शरीर से रक्तबिन्दुओं-मांसखण्डों के निःसरण के साथ गर्भाधान की सम्भावनाएँ भी नष्ट हो जाती हैं. इस माह जीवन नहीं पनपा. अगले माह फिर देखा जाएगा.
हर महीने इस ध्वंस का मकसद आप तब तक नहीं समझ सकते, जब तक आप स्त्री को न समझें. स्त्री के मन पर ढेरों दार्शनिक बातें की जाती रही हैं, लेकिन तन को इतना क्षुद्र मान लिया गया कि उसपर चर्चा ही नहीं की गयी. या यों कहिए कि तन के बारे में उन्हें कुछ ढंग से पता ही नहीं था. मन के बारे में कल्पित बातें की जाती रहीं, तन के सुदृढ़ तथ्य तब पता चले जब आधुनिक विज्ञान ने हर रहस्य तार-तार करके उद्घाटित किया.
दर्शन की यही समस्या है. वह मूर्त को एकदम किनारे कर अमूर्त को साधने चल देता है.ठोस को बूझे बिना तरल और वायवीय में तैरना चाहता है. स्थित को जाने बिना अनिश्चित की तलाश में भटका करता है.
आइए मूर्त स्त्री की बात करें. वह जो हाड़-मांस की बनी है, जो न देवी है और न नरक में घसीटने वाली तृष्णा, बस एक जीव है. जो पुरुष का प्रतिलिंगी पूरक है, न उससे बेहतर है और न बदतर.
हर सामान्य स्त्री के पास एक गर्भाशय होता है, जिससे दो अण्डवाहिकाएँ (या अण्डवाहिनियाँ) निकलती हैं. इन अण्डवाहिकाओं के समीप उनके सम्पर्क में दो अण्डाशय रहते हैं. इन्हीं अण्डाशयों से प्रत्येक माह एक अण्डाणु सन्तान बनने हेतु अण्डवाहिनी से होता हुआ गर्भाशय को चलता है, इस आशा में कि रास्ते में कहीं भी उसकी शुक्राणु से भेंट हो सकती है. भेंट होगी, तो वे मिल जाएँगे. मिल जाएँगे, तो एक नया जीव बनेगा. वह एक कोशिकीय जीव, जो अण्डवाहिनी या गर्भाशय में सृजित हुआ है, अब गर्भाशय की किसी दीवार में चिपक कर धँसने की क्रिया आरम्भ करेगा. फिर उसका विकास शुरू.
आप किसी आम स्त्री से पूछकर देखिए कि उसका गर्भाशय कहाँ है, वह बता न सकेगी. पढ़ी-लिखी मैडमें भी मोहल्ले की कामवालियों के समतुल्य सिद्ध हो जाएँगी. और-तो-और पुरुष भी. किसी को जानकारी ही नहीं अमुक अंग होता कहाँ है? और बातें दर्शन की, मीमांसा की, तत्त्वज्ञान की. किसे क्या कहा जाए? हँसा जाए या रोया जाए? ये कैसी नक़ली बुद्धिजीविता है?
एब्स्ट्रैक्ट से पहले कॉन्क्रीट को पकड़िए. सामान्य स्त्री का गर्भाशय लगभग सात सेंटीमीटर लम्बा अंग होता है जो कूल्हे यानी पेल्विस के भीतर स्थित होता है. गर्भाशय कूल्हे की हड्डियों के निचले घेरे के भीतर होता है. सामान्यतः वह पेट में नहीं होता और उसे छूकर पता नहीं किया जा सकता. इस गर्भाशय के आगे स्त्री का मूत्राशय होता है और पीछे मलाशय, जैसे प्रकृति ने कोई बड़ा खजाना किसी कूड़े के ढेर में छिपाया हो. इस गर्भाशय का निचला हिस्सा गर्भग्रीवा से मिलता है, जिसे सर्विक्स भी कहा जाता है. यह गर्भग्रीवा और नीचे योनि या वैजाइना से मिलती है जो बाहर को खुलती है.
ऊपर गर्भाशय में दोनों ओर अण्डवाहिनियाँ खुलती हैं, जिनका काम अण्डाशय में बने अण्डाणु को हर माह उसमें पहुँचाना होता है. गर्भाशय कोई कमज़ोर अंग नहीं, यह मांस से भरपूर होता है. और हर माह इसकी मोटाई हॉर्मोनों के प्रभाव में घटती-बढ़ती रहती है. गर्भावस्था में तो यह अपने चरम पर पहुँच जाती है क्योंकि इसे अपने भीतर पल रहे एक शिशु को रक्षित-पोषित करना होता है.
अण्डाशय या ओवरी की स्थिति भी निचले पेट में नाभि के नीचे होती है. हर महीने किसी एक अण्डाशय से एक अण्डाणु निषेचन की सम्भावना लिए अण्डवाहिनी में प्रवेश करता है और वहाँ से गर्भाशय में पहुँचता है. यदि शुक्राणु मिला तो ठीक, नहीं तो वह मासिक धर्म के विनाश के साथ योनि के रास्ते बाहर को निःसृत हो जाता है.
इन सामान्य जानकारियों से महिलाओं को यह भी पता चलता है कि अण्डाशय और गर्भाशय का दर्द अमूमन नाभि के नीचे वाले हिस्से में होता है. हाँ, गर्भ ठहरने के बाद यह गर्भाशय आकार और मज़बूती में बढ़ता है और ऊपरी अंगों को धकेलता-हटाता बड़ा होते हुए अन्ततः पूरे पेट को घेर लेता है. किन्तु किसी सामान्य अगर्भवती स्त्री में यह एक कोने में नीचे को अपनी दोनों मित्र अण्डाशयों और दोनों अण्डवाहिनियों-संग निष्क्रिय पड़ा रहता है.
साभार: डॉ. स्कन्द शुक्ला