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महज़ 'कवि' नहीं जनकवि थे गिर्दा

दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, श्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे एहसास के लिए नाकाफी हैं।

-रोहित जोशी


मेरे लिए नैनीताल और राजनांदगांव, इन दो शहरों में दो चीजें समान थी। झील और मेरे प्रिय कवि। राजनांदगांव में रानीझील और मुक्तिबोध। नैनीताल में नैनीझील और ‘गिर्दा’। पिछले साल (2010) राजनांदगांव में मुक्तिबोध के स्मारक से लौटते हुए हम रानीझील के किनारे टहल रहे थे तो एक फोन से पता चला कि ‘गिर्दा नहीं रहे।’ यह खबर दुखद थी लेकिन आकस्म्कि नहीं थी।

‘गिर्दा’ लंबे समय से बीमार थे। कई बार मौत को मात देते अस्पताल से लौट आए थे। लेकिन यह बात हमारे भीतर घर कर ही गई थी कि गिर्दा अब लम्बे समय साथ नहीं हैं। फोन से मिली मायूसी भरी इस खबर को कानों ने आसानी से सुन लिया था, लेकिन भीतर कुछ पसीज रहा था और हम किनारे पसरी झील की तरह स्तब्ध होते जा रहे थे।


यह रानीझील ही थी जो तकरीबन हजार किलोमीटर दूर नैनीझील, नैनीताल और गिर्दा की स्मृतियों से हमें जोड़ रही थी। तरुणाई को छूते-छूते ‘गिर्दा’ हमारे आसपास सुना जाता किंवदंतियों का सा नाम था। जिनके गीत हम गाते थे और सुनते कि-इन गीतों का जो लेखक है वह जब इन्हें सड़क गली, नुक्कड़ों-चौराहों पर गाता है तो सैड़कों की भीड़ से घिर जाता है। इस बात की कल्पना से ही ऊर्जा पाकर हम ‘गिर्दा’ की पंक्तियों को गाते हुए झूमने लगते- ओ जैंता! इक दिन त आलो उ दिन यो दुनि में (साथी! वो दिन, एक दिन जरूर आएगा इस दुनिया में।) यही वह जनगीत था जो मैंने पहले-पहल सीखा और गाया भी खूब।


हमारी नई पीढ़ी के इर्द-गिर्द गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ जब इस तरह महसूस किए जा रहे थे, यह उनका वह दौर था जब वे अपने व्यक्तित्व, सृजन और आंदोलनात्मकता के चरम को पार कर चुके थे और पहाड़ के, खासकर आंदोलनों से जुड़े युवाओं के लिए वाकई किंवदंती बन चुके थे। अक्सर किंवदंतियों से बनी कल्पनाएं यथार्थ से टकराकर टूट जाती हैं, लेकिन ‘गिर्दा’ से पहली ही मुलाकात में उनकी कल्पित छवि मेरे भीतर और भी ज्यादा साकार हुई।


यह मुलाकात ‘गंगावली महोत्सव’ में थी जो उत्तराखण्ड के छोटे से मेरे कस्बे गंगोलीहाट का सांस्कृतिक आयोजन था। गिर्दा को यहां काव्यगोष्ठी में शिरकत करनी थी। इस छोटे कस्बे के लोगों से साहित्य के इस आयोजन में जुट पड़ने की उम्मीद आयोजकों को नहीं ही थी, इसलिए काव्यगोष्ठी एक छोटे सभागार में आयोजित की गई थी और मुख्यमंच में लोकसंस्कृति के रंगारंग कार्यक्रम भी साथ ही चल रहे थे।

सभागार में गोष्ठी शुरू हुई तो कुछ साहित्य रसिक ही अंदर थे। कुर्सियां अभी खाली-खाली सी ही दिखाई दे रही थी। संचालक महेन्द्र मटियानी ने अपना तुरूप का पत्ता ही सबसे पहले डालते हुए गिर्दा को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। ज्यों ही गिर्दा ने अपनी चर्चित कविता ‘वक्त जाने में कुछ नहीं लगता’ का पाठ शुरू किया सभागार के इर्द-गिर्द की सारी भीड़ सभागार में भर आई।


अब इस छोटे से सभागार में पैर रखने को भी जगह नहीं थी। लोग खिड़कियों से झांकते हुए गिर्दा को सुन रहे थे। सभागार के भीतर भीड़ के बीच ही मुझे एक खबर यह भी मिली कि मुख्यमंच तकरीबन खाली हो गया है और वहां के सारे दर्शक स्रोता बन सभागार के बाहर जमा हैं। इस काव्यगोष्ठी में जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने भी गिर्दा का खूब साथ दिया। लोगों ने देर रात तक इन दोनों कवियों से बार-बार अनुरोध कर कविताऐं सुनीं।


‘गिर्दा’ की क्षमतायें ये थीं और इसके साथ ही उनकी कविताओं का मजबूत वैचारिक पक्ष उन्हें विलक्षण बनाता था। गिर्दा का जीवन किसी फंतासी से कम नहीं रहा है। पहाड़ों में उछलता-कूदता पिता विहीन बचपन, घर से भागकर अजनबी शहर में रिक्शा चलाती तरुणाई, लोक और जीवन के सघन अनुभवों से बनती वैश्विक दृष्टि, सांस्कृतिक आंदोलनों से निखरती कला और जनआंदोलनों से उबाल पाकर अपने चरम में पहुंच मिथक बन गया व्यक्तित्व गिर्दा को महत्वपूर्ण बनाता है।


‘गिर्दा’ से मेरी आखिरी मुलाकात नैनीताल में उनकी मृत्यु से तकरीबन एक महीने पहले हुई थी। मैं उनके घर बिना सूचना दिए औचक ही पहुंचना चाह रहा था। लेकिन वे डांठ में ही मिल गये। बताया कि ‘आज तो बबा! सपत्नीक रिश्तेदारी में जाना है शाम तक लौटूंगा फिर मिलते हैं।’ गिर्दा आज पिछली कई मुलाकातों से ज्यादा स्वस्थ थे। शाम को संयोग से गिर्दा वहीं पर फिर मिल पड़े, लेकिन ये मुलाकात भी छोटी ही रही। मुझे हल्द्वानी निकलना था इसलिए उनके घर जा न सका। एक साक्षात्कार में गिर्दा कहते हैं ‘मैं वाचिक परंपरा का कवि हूं। मेरी कवितायें पढ़ने से ज्यादा सुनने के लिए हैं।’


दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे एहसास के लिए नाकाफी हैं।


22 अगस्त 2011 के जनसत्ता में प्रकाशित

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