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यहां लिबास की कीमत है...


यहां आदमी की नहीं, लिबास की कीमत है। बात ये बशीर बद्र ने कही है। लेकिन, इस बात को सबसे ज्यादा अच्छी तरह से बाजार समझता है। वह हर समय बुरी से बुरी चीज को भी अच्छा से अच्छा लिबास पहनाने में जुटा रहता है। दुनिया में इंसानों की समस्याओं के हल से ज्यादा पैसा इंसानों को सामान बेचने की जुगत भिड़ाने पर खर्च किया जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में विज्ञापनों का बाजार 560 अरब डॉलर से ज्यादा का है। यानी इतना पैसा सिर्फ लिबास पहनाने में खर्च हो रहा है।

-कबीर संजय



इल्यूजन की प्रातिनिधिक तस्वीर इंटरनेट से

दुनिया में जितनी तेजी से धन का एकत्रीकरण बढ़ रहा है, यानी सब तरफ से पैसा छन-छन कर सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित होता जा रहा है, वैसे-वैसे ही विज्ञापनों का कारोबार भी बढ़ता जा रहा है। यहां तक कि कई चीजें तो ऐसी हैं कि उन्हें बनाने में जितना खर्च हुआ है, उससे कई गुना ज्यादा खर्च उनके विज्ञापनों पर किया जाता है। क्या हमें इसका पता नहीं होना चाहिए कि जो चीज हम खरीद रहे हैं, उसकी लागत पर कितना खर्च आया और उसके विज्ञापन पर कितना खर्च हुआ। एक पिक्चर पूरी होती है और अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक की पूरी टीम दर-दर जाकर उसका प्रचार करने में जुट जाती है। उन्हें अपनी चीज के अच्छे होने पर विश्वास नहीं है। उन्हें अपने धुआंधार प्रचार पर विश्वास है। विज्ञापनों की दुनिया बड़ी सपनीली है। यहां पर सबकुछ बहुत ही ज्यादा रंगीन और सुखमय है। जहां कहीं कष्ट है भी वह बस जरा से पैसे खर्च करके दूर हो सकते हैं। बनाने को तो वो सिर में मौजूद डैंड्रफ यानी रूसी को भी दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बना सकते हैं।


हाल ही में डिस्कवरी साइंस पर एक कार्यक्रम देखा कि ह्यूमेन ब्रेन कैसे काम करता है। बाजार इस पर सबसे ज्यादा शोध कर रहा है। हम क्या देखते हैं और क्या-क्या हमें याद रह जाता है। बचपन में शायद आपने भी अपने स्कूल में इस तरह की किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया हो। जिसमें एक टेबल पर तमाम चीजें दिखाने के बाद अलग जाकर उनके नाम लिखना होता है। इससे यह देखा जाता है कि किस चीज की छवि आप पर कितनी देर तक रहती है। वे इस बात पर शोध करते हैं कि इंसान किसी की बात पर कैसे विश्वास करता है। कैसे वह किसी बात को खारिज कर देता है। वे एक ही कपड़े की बनी हुई पांच जींस को अलग-अलग लोगों को दे देते हैं और उनमें कौन सा कपड़ा सबसे अच्छा है, यह ढूंढने के लिए कहते हैं। हमारा मस्तिष्क इस धोखे को पकड़ नहीं पाता और हम उस कपड़े में अच्छा-बुरा खोजने लगते हैं। वे जानते हैं कि सड़क के किस मोड़ पर सबसे ज्यादा निगाह पड़ेगी, वहीं पर वे अपनी होर्डिंग लगाते हैं।


खास बात यह है कि डिजिटल माध्यम अब धीरे-धीरे विज्ञापन के अन्य माध्यमों को पछाड़ने लगे हैं। डिजिटल विज्ञापनों का प्रसार दुनिया भर में 17 फीसदी तेजी से हो रहा है। फेसबुक हमारे लिए मनोरंजन और फुसरत काटने का माध्यम है। लेकिन, हमारी फुरसतों और मनोरंजन के जरिए फेसबुक के मालिक 67.37 अरब डॉलर कमाते हैं। डिजिटल माध्यमों के विज्ञापन में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी गूगल की है। फेसबुक दूसरे नंबर पर है। गूगल 103.73 अरब डॉलर कमा रहा है। जबकि, तीसरे नंबर पर अलीबाबा 29.20 अरब डॉलर कमा रहा है। एमेजॉन की कमाई 14.03 अरब डॉलर की है।


इतना ढेर सारा पैसा खर्च करके हमारे दिमाग में परसेप्शन बनाया जाता है। क्या आपको ऐसा लगता है कि किसी बहुत बड़े शॉपिंग माल में जाने पर आप कुछ गैर जरूरी चीजें भी खरीद लाते हैं। जिनकी आपको तुरंत जरूरत नहीं है। या फिर जब आप क्रेडिट कार्ड के जरिए भुगतान करते हैं तो ज्यादा फराखदिल हो जाते हैं। जब पैसे गिनकर देने होते हैं तो आदमी ज्यादा मोलभाव करता है।


बाजार आपको अपने परसेप्शन में डुबो देना चाहता है। ताकि, आप बस उसका सामान खरीदते रहे। वो बताना चाहता है कि ठंडा मतलब कोका-कोला होता है। ठंडे का मतलब सुराही का पानी नहीं है। दीपिका पादुकोण आकर बताती हैं कि शिक्षा-समानता और रोजगार पर नहीं खूबसूरती पर हमारा हक है। प्रिया गोल्ड बिस्कुट बताता है कि हक से मांगो। कुल मिलाकर यह एक परसेप्शन रचने की साजिश है।

खराब बात यह है कि विज्ञापनों के जरिए भरमाने का यह बाजार कुछ इसी तरह से राजनीति में भी उतर आया है। यहां भी विज्ञापनों की चकाचौंध से विवेक को चुंधिया देने का दौर है। यहां भी विज्ञापनों जैसी ही तरकीबें अपनी जा रही हैं। समस्याओं के इंस्टेंट समाधान सुझाए जा रहे हैं।

लेकिन, बीते कुछ सालों के उदाहरणों से हम इतना तो समझ ही सकते हैं कि इस रास्ते पर चलकर दुनिया को और ज्यादा गर्त में जाना है।

तो फिर दूसरा रास्ता क्या हो। इस पर सोचिए न मिलकर सब !!!


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