top of page

कैसे मुसीबत बनी पराली?

इस साल 5 नवम्बर तक पूरे साल में सिर्फ दो दिन ऐसे गुजरे जब दिल्ली की हवा में AQI सामान्य रहा, बाकी पूरे साल या तो खतरनाक श्रेणी का रहा या खराब रहा। फिर यह प्रदूषण चर्चा मियादी बुखार की तरह क्यों आती है?

-कृष्ण कान्त


फ़ोटो - गूगल से साभार

यह पराली उर्फ पुआल से प्रदूषण नाम की बला कहाँ से आई? पारंपरिक रूप से धान हंसिया से काट लिया जाता है। बस थोड़ी सी जड़ रह जाती है जो जुताई के साथ मिट्टी में मिल जाती है। पुआल से धान अलग करके उसे खलिहान में लगा दिया जाता है। पूर्वी यूपी में आज भी ज्यादातर पुआल पशुओं को खिलाने के काम आता है। वहां पराली जलाई नहीं जाती। वैसे भी पराली एक बार भीग जाए तो मुश्किल से महीने भर में सड़कर मिट्टी हो जाती है। यह समस्या उपजी कैसे?


धान तो देश के तमाम हिस्से में उगाया जाता है तो पराली पंजाब में ही क्यों जलाई जाती है? क्योंकि हरित क्रांति के बहाने जब खेती में कमपनियों ने घुसपैठ की तो सरकार ने कहा कि तकनीकी खेती से पैदावार बढ़ाएंगे। ट्रैक्टर के अलावा बीज बोने और गेहूं-धान काटने की मशीनें लायी गईं। अमीर किसानों ने ये मसीनें खरीद लीं।

अब पंजाब का संकट है कि खेती मशीन से होती है तो पशुओं का योगदान भी बंद और पशुओं के भोजन के रूप में पराली की कोई उपयोगिता नहीं। किसान उसका करे क्या। तो उसने तरकीब निकाली कि इसे खेत मे जलाकर राख कर दो टंटा खतम।


बेशक हरित क्रांति वाले क्षेत्रों ने अनाज उपलब्धता में अहम योगदान दिया, लेकिन सरकार जब पारंपरिक चीजों में दखल देती है तो उसके अंजाम की चिंता क्यों नहीं करती? यह वैसे ही है जैसे बीजेपी सरकार ने गोहत्या रोकने का बहाना लेकर पशुओं का पूरा बाजार तोड़ दिया लेकिन यह नहीं सोचा कि बेकार पशुओं का क्या होगा? अब आवारा पशु समस्या बने हुए हैं। क्योंकि किसान उतने ही जानवर रखता है जितने की परवरिश कर सके। किसान ऐसा नहीं होता जो तमाम बेकार पशुओं को अपने खूंटे पर बांधकर भूखा मारे। यह काम कथित योगी और फ़क़ीर की गोशालाएं ही कर सकती हैं।


कहने का मतलब है कि सरकार के प्रयासों से हम अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर तो हुए, लेकिन इसकी भारी कीमत चुकाई है। किसानों को लालच देकर कर्ज बांटा गया तो उसका परिणाम 3 लाख से ऊपर आत्महत्याओं के रूप में सामने आया जिसका सरकार के पास कोई हल नहीं है। इसी तरह तकनीकी खेती का परिणाम पराली का धुआं है।


किसानों को कोसने की जगह आप अपने विकास मॉडल पर तरस खाइये कि आप काला धन रोकने निकलते हैं तो नोटबन्दी कर देते हैं और पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। पराली सरकार का दिया तोहफा है।

एक जानकार का तो यह भी कहना है कि मशीनों को खपाने के लिए ही यह पराली और धुएं का महाभारत रचा जा रहा है। एक खतरनाक स्तर का प्रदूषण तो पूरे साल होता है तो प्रदूषण पर बहस सिर्फ 15 दिन क्यों होती है जब धान काटने का सीजन होता है।


इस साल 5 नवम्बर तक पूरे साल में सिर्फ दो दिन ऐसे गुजरे जब दिल्ली की हवा में AQI सामान्य रहा, बाकी पूरे साल या तो खतरनाक श्रेणी का रहा या खराब रहा। फिर यह प्रदूषण चर्चा मियादी बुखार की तरह क्यों आती है?

bottom of page