जेएनयू के बहाने एक विश्वविद्यालय का मतलब
मुझे लगता है कि एक विश्वविद्यालय को एक ऐसी आदर्श जगह होना चाहिए जो छात्रों और अध्यापकों को नज़रियों की इन बहुलताओं से रूबरू होने के लिए प्रोत्साहित करे और उन्हें दार्शनिक दुविधाओं के बीच जीना सिखाए. और इसलिए, मैं ऐसे छात्र की कल्पना करता हूं जो बिना किसी झिझक, चिंता या दंभ के लोकायत का अध्ययन कर रहा हो तो वेदांत भी पढ़ रहा हो, फ्रैंज काफ़्का भी तो कालिदास भी, गांधी को भी और फ़ूको को भी.
- अविजित पाठक
अनुवाद: रोहित जोशी

जेएनयू कैंपस में टहलते हुए मैं अक्सर एक सवाल ख़ुद से पूछा करता हूं: जवाहरलाल नेहरू और स्वामी विवेकानंद की मूर्तियों की ओर देखने और फिर बीआर अंबेडकर सेंट्रल लाइब्रेरी में दाख़िल होने का क्या अर्थ है? संभवत: इस सवाल का अस्तित्व इसी बात से है कि हम एक बेहद इकतरफ़ा सोच से भरी ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां 'वाम' और 'दक्षिण' पंथी छवियां हावी हैं.
जहां कुछ लोगों को इस बात का ख़ौफ़ है कि एक 'हिंदू' विवेकानंद, 'सबऑल्टर्न' अंबेडकर और या एक 'सेकुलर' नेहरू के साथ सहअस्तित्व में नहीं रह सकते. या, देश में चल रही हावी हो जाने वाली राजनीतिक बहस के बीच, कुछ लागों की यह राय हो सकती है कि जेएनयू में स्वामी विवेकानंद की मूर्ति का अनावरण महज़ एक शुरूआत है. यह 'वामपंथी और अंबेडकरवादी' विश्वविद्यालय को 'शुद्ध' करने की ओर एक क़दम है, और उसे 'राष्ट्रवादी' आकांक्षाओं के क़रीब लेकर आने की क़वायद है.
हालांकि, जेएनयू कैंपस के साथ एक तरह के बौद्धिक और भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले एक अध्यापक/धुमक्कड़ के तौर पर, मैं एक विश्वविद्यालय को वामपंथ और दक्षिणपंथ की बहस के बेतहाशा इस्तेमाल हो चुके प्रिज़्म से पार उसके अदर्शों में देखता हूं.
शुरूआत करते हुए, जवाहरलाल युनिवर्सिटी की तीन ख़ास बातों को समझना ज़रूरी है. पहली, इसके ओजस्वी प्रोफ़ेसर्स, और देश भर से आने वाले इसके जुझारू छात्रों के ज़रिए, यह विश्वविद्यालय क़ाफ़ी विकसित आलोचनात्मक मस्तिष्क तैयार करने में क़ामयाब हुआ है. ऐसे मस्तिष्क जो कि मानविकी और समाज विज्ञानों की प्रमुख बहसों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं, या फिर ऐसे मस्तिष्क जो कि नए सवाल उठा सकते हैं और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में अपना योगदान दे सकते हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अंतोनियो ग्राम्शी और लुइस अल्थुसर, रंजीत गुहा और एरिक हॉब्सबॉम, जूडिथ बटलर और मिशेल फ़ूको जैसे रेडिकल विचारक यहां के छात्रों और शिक्षकों की कई पीढ़ियों की चेतना पर हावी रहे.
दूसरी बात, यहां ज्ञान का प्रसार और आदान प्रदान, राजनीतिक मंथन की प्रक्रिया से अलग नहीं रहे हैं. छात्रों और यहां तक कि अध्यापकों के बीच भी मौजूदा हालातों और यथास्थिति को लेकर एक अंतर्निहित संदेह रहा है. चाहे वह आपातकाल के ख़िलाफ़ चला संघर्ष रहा हो या CAA के ख़िलाफ़ चला हालिया संघर्ष हो, जेएनयू सघर्ष और आलोचना भरी आवाज़ों की एक महत्वपूर्ण जगह बना. इस लिहाज़ से विश्वविद्यालय ने एक 'राजनीतिक' चरित्र इख़्तियार किया.
और तीसरी बात, पारंपरिक/रूढ़िवादी समाजों में जैसा होता है उसके विपरीत, जेएनयू का सांस्कृतिक परिदृश्य प्रयोगों, खुलेपन और नई संभावनाओं से भरा रहा. प्रतिरोध गीतों से लेकर रेडिकल थिएटर तक, और फूले और अंबेडकर, मार्क्स और चे के संदेशों से भरे अनंत अड्डों से लेकर रंग बिरंगे पोस्टर्स तक हर तरफ़ मार्क्सवाद, अंबेडकरवाद, स्त्रीवाद और उत्तरआधुनिकतावाद की गूंज यहां सुनाई देती रही.
जेएनयू की इन हलचलों ने हमें समृद्ध किया. आलोचनात्मक नज़रिए की प्रवृत्ति, सामाजिक राजनीतिक मसलों पर समृद्ध बहसों और उच्च स्तरीय बौद्धिक गतिविधियों से सीखने के लिए 'वामपंथी' होना ज़रूरी नहीं. कई छात्रों के लिए जेएनयू बस एक ऐसी जगह नहीं जहां से किसी को महज़ एक डिग्री या सर्टिफ़िकेट मिलता हो, बल्कि यह ज़िंदगी बदल देने वाला एक अनुभव रहा है. इनमें वे छात्र भी शामिल हैं जिन्होंने इंडियन सिविल सविर्सेज़ को जॉइन करना चुना.
हालॉंकि, यह कहना भी पूरी तरह ग़लत नहीं होगा कि बावज़ूद इसकी अकादमिक उत्कृष्टता और प्रतिरोध की संस्कृति के, यहां कुछ दिक्कतें रहीं. संभवत: एक आइलैंड की तरह यह तेज़ी से अपने परिवेश से कटता गया, यहां एक तरह का बौद्धिक आत्ममुग्ध माहौल बनता गया और इसने स्थानीय बौद्धिकों और विविध ज्ञान परम्पराओं से अपना जुड़ाव खो दिया.
उदाहरण के तौर पर, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि गांधी, टैगोर और अरबिंदो के विचारों को उचित महत्व नहीं मिला, और भगवत गीता या उपनिषदों के संदर्भों को अक्सर 'ब्राहमणवादी' कह कर ख़ारिज़ कर दिया गया. दूसरे शब्दों में कहें तो हम सुनने की कला को खोते रहे. इस टूटे हुए संवाद के चलते कईयों ने जेएनयू पर 'एलीटिस्ट' और यहां तक कि 'एंटी-नेश्नल' होने के लांछन लगाए.
इस विश्वविद्यालय को ईमानदारी के साथ आत्ममंथन की ज़रूरत है. इसका मतलब 'वाम' और 'दक्षिण' से पार जाने से है. यह ज्ञान की तलाश में बहुलतावाद की भावना को उभारने, और सुनने की कला को बढ़ावा देना है. और यह बुनियादी तौर पर आरोप-प्रत्यारोपों की घटिया हरक़तों से अलग है. (अब तक तुम 'वामपंथियों' का वर्चस्व रहा है, और अब हमारी बारी है. तुमने मार्क्स और अंबेडकर की बात की, और अब हम सावरकर और गोलवरकर का गुणगान करेंगे. तुमने जैंडर स्टड़ीज़ और किसानों के संघर्ष का अध्ययन किया अब हम संस्कृत, योग और आयुर्वेद लेकर आएंगे.)
असल में, एक विश्वविद्यालय को तभी ठीक किया जा सकता है, जब छात्रों, अध्यापकों और प्रशासकों के तौर पर, हम इस दुष्चक्र को तोड़ने का साहस दिखाएं, और ख़ुद को एक खोजी, घुमक्कड़ की तरह देखें, जिसे खुलेपन, निडरता और संवाद की भावना के साथ लर्निंग और अनलर्निंग जारी रखनी है.
इस संदर्भ में जिस प्रश्न के साथ मैंने इस आलेख की शुरूआत की थी वह फिर जीवित हो उठता है. मैं नेहरू की मूर्ति को देखता हूं और उनकी 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' को याद करता हूं. किस तरह से "आधुनिकतावादी" नेहरू ने एक पुरानी सभ्यता की जीवंतता को समझने की कोशिश की, और साथ ही साथ वे "अतीत के निष्प्राण बोझ" से लड़ना और एक नए राष्ट्र को पुनर्जीवित करना चाहते थे. उसमें अपनी जड़ों का भान भी था तो विश्ववादी नज़रिया भी.
फिर मैं स्वामी विवेकानंद की ओर देखता हूं. मुझे शिकागो धर्म सम्मेलन का वह अद्भुत् भाषण सुनाई देने लगता है. विविधताओं के बावजूद बुनियादी एकता का उपनिषदों का संदेश. लोगों की सेवा करने के मक़सद से 'व्यावहारिक वेदांत' के आह्वान की उनकी भावुक दलील मुझे दिखाई देती है. हॉं, मैं उन पर हंसता हूं जो कि ये सोचते हैं कि वे मुझे यह कहकर मूर्ख बना लेंगे कि विवेकानंद आक्रामक हिंदू राष्ट्रवाद के चैंपियन थे. अंत में अंबेडकर के साथ, मैं अपनी आंखें खोलता हूं, और जाति के ख़ात्मे के अभियान को अपनी सहमति देता हूं.
मुझे लगता है कि एक विश्वविद्यालय को एक ऐसी आदर्श जगह होना चाहिए जो छात्रों और अध्यापकों को नज़रियों की इन बहुलताओं से रूबरू होने के लिए प्रोत्साहित करे और उन्हें दार्शनिक दुविधाओं के बीच जीना सिखाए. और इसलिए मैं एक ऐसे छात्र की कल्पना करता हूं जो बिना किसी झिझक, चिंता या दंभ के लोकायत का अध्ययन कर रहा हो तो वेदांत भी पढ़ रहा हो, फ्रैंज काफ़्का भी तो कालिदास भी, गांधी को भी और फ़ूको को भी.
इसके लिए आज़ादी की ज़रूरत है. एक ऐसे माहौल की ज़रूरत जो कि छात्रों और अध्यापकों का सम्मान करता हो और उन्हें उनकी क्षमताओं को खोलने की इजाज़त देता हो. हालांकि, हम लोग इस आदर्श को विकसित करने के बजाय, बदले की भावना के तहत एक विश्वविद्यालय की मूल आत्मा के एक संरचनात्मक विध्वंश की प्रक्रिया के साक्षी बन रहे हैं.
जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर अविजित पाठक का यह आलेख 'The university beyond left and right’ मूलत: अंग्रेज़ी अख़बार 'The Indian Express' में 6 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है. अनुवाद साभार प्रकाशित.