अब संविधान का क्या करें? ('संविधान दिवस' विशेष)
भारतीय समाज के जटिल ताने-बाने में संविधान को लेकर एक ख़ूबसूरत ख़्याल!

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है. इसका संविधान मौजूदा दुनिया के सबसे आधुनिक संविधानों में है. लेकिन अगर राजनीति विज्ञान का कोई छात्र इस देश के सामजिक तानेबाने, उसकी राजनीतिक चेतना और इसके संविधान के आधुनिक मूल्यों की पड़ताल करे तो वहां गहरे अंतर्विरोध हैं. इस बात का इशारा, डॉ. भीमराव अंबेडकर ने, भारत को संविधान सौंपते हुए 25 नवंबर 1949 में संविधान सभा के अपने अंतिम संबोधन में किया था. उन्होंने कहा था,
''26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोध पूर्ण जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम असमानता से ग्रस्त होंगे. राजनीति में हम ‘एक मनुष्य, एक वोट' और ‘एक वोट, एक मूल्य' वाले सिद्धांत को मान्यता दे चुके होंगे. सामाजिक और आर्थिक जीवन के साथ ही अपने सामाजिक-आर्थिक ढांचे का अनुसरण करते हुए हम ‘एक मनुष्य, एक मूल्य' वाले सिद्धांत का निषेध कर रहे होंगे.''
इन अंतर्विरोधों के बीच वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव एक ख़ास बातचीत में मौजूदा हालातों में संविधान का क्या किया जाए? इस बारे में एक ख़ूबसूरत ख़्याल रख रहे हैं. (उन्हें सुनते हुए एक एहतियात बरतने की ज़रूरत है कि उनकी बातों के शाब्दिक अर्थ निकालने के बजाय उनके गहरे प्रतीकात्मक अर्थों को पकड़ा जाए.)
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