संपादकीय: यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता..
अंतराष्ट्रीय कूटनीति में देशों के आपसी रिश्तों का आधार न्याय नहीं होता. वह परिस्थितियों और ज़रूरतों का एक ग़ज़ब का संतुलन होता है जो कि कश्मीर में अलोकतांत्रिक ढंग से मानवाधिकारों के जबरदस्त हनन के दौर में भी अमेरिका के राष्ट्रपति को भारत के प्रधानमंत्री के 'मेगा शो' में घसीट लाता है.
-रोहित जोशी

इधर अल्मोड़ा में फ़वाद से मुलाक़ात हुई. एक कश्मीरी बेरोज़गार युवा, जो अभी-अभी कश्मीर से लौटा है. सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. नौकरी की तलाश में है. यहीं (हिंदुस्तान) मिल जाए तो ठीक वरना ग़ल्फ़ जाना चाहता है. उसने बताया कश्मीर में उसके वालिद की एक छोटी दुक़ान है. हेंड टु माउथ हैं. रोज़ कमाते हैं, रोज़ खाते हैं. पिछले 50 दिनों के लॉक-डाउन से घर की हालत एकदम ख़स्ता है.
फ़वाद कहते हैं, ''जो अमीर लोग हैं वो कश्मीर में अब बोर होने लगे हैं. वे टिकट करा रहे हैं और विदेश चले जा रहे हैं. कश्मीर में सबसे बड़ी आबादी हमारे परिवार की तरह है, जिसके लिए कश्मीर के मौजूदा हालात सबसे ख़राब हैं.''
उन्होंने बताया कि शुरुआत में कश्मीर को कनैक्ट करने वाले सारे सड़क मार्ग बंद थे. केवल हवाई मार्ग से ही यात्रा संभव थी लेकिन टिकट कराने एयरपोर्ट ही जाना पड़ रहा था. फ़ौजी साए में घरों से बहार निकलना अब भी रिस्की है. हालांकि अब सड़क मार्ग खुल चुके हैं. मोबाइल और इंटरनेट की कनेक्टिविटी अब तक भी सुचारु नहीं की गई है.
इसबीच अमेरिका के ह्यूस्टन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पीआर अधिकारियों ने कॉरपोरेट फंडिंग की मदद से 'हाउडी मोदी' का 'मेगा शो' आयोजित कराया. अमेरिका में बसे भारतीय मूल के 50 हज़ार अमेरिकी मतदाताओं के साथ इस आयोजन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प भी ख़ुद शरीक़ हुए. मोदी ने मंच से अपील की, 'अब की बार ट्रम्प सरकार!'
अब इससे आगे इस मेगा इवेंट के आयोजन का मक़सद, अमेरिकी राष्ट्रपति की गरमा गरम मौजूदगी, इन सबके बारे में कोई रहस्य नहीं रह जाता है.
अपनी भाव-भंगिमाओं से दोनों नेताओं ने दर्शाया कि दोनों काफ़ी क़रीबी हैं, ना सिर्फ़ परिचय के लिहाज़ से बल्क़ि वैचारिक साम्यता के लिहाज से भी. भारत में इसे मीडिया घरानों ने मोदी की एक बड़ी उपलब्धि के बतौर प्रचारित किया जबकि यह प्रधानमंत्री मोदी का ट्रंप की एक चुनावी रैली को संबोधित करने जैसा था, जिसकी टारगेट आडियंस मोदी के प्रभावक्षेत्र में आती है.
हालांकि इस 'मेगा इवेंट' के बरक़्श अमेरिका के अलग-अलग शहरों में लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने सड़कों पर उतरे थे. उन्हें भारत का हिटलर कहा जा रहा था. भारत में उनकी जन विरोधी नीतियों के साथ ही ख़ासकर कश्मीर में उनके हालिया क़दम का ये प्रदर्शनकारी विरोध कर रहे थे.
ऐसे माहौल में जहां मोदी सरकार ने कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान करने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में संशोधन के ज़रिए उसे निष्प्रभावी बना देने का क़दम उठाया है, साथ ही उसके बाद से पिछले 50 दिनों से कश्मीर भारतीय फ़ौज के साए में बुनियादी स्वतंत्रताओं के अभाव में जी रहा है, अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने पुराने सहयोगी पाकिस्तान को नाराज़ कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीठ पर क्यों हाथ रखा है, यह प्रश्न महत्वपूर्ण हैं.
अमेरिका का ऐतिहासिक रूप से ख़ासतौर पर अफ़गानिस्तान में अपने कूटनीतिक हितों के चलते पाक़िस्तान पर वरदहस्त रहा है. लेकिन घनघोर मुस्लिम विरोधी दक्षिणपंथी, डोनल्ड ट्रंप के अमरीक़ी सत्ता में क़ाबिज़ होने के साथ ही, भारतीय सत्ता में उन्हीं की वैचारिक साम्यता वाले नरेंद्र मोदी के होने ने भारत-अमेरिका और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में एक बदलाव को जन्म दिया है.
हालांकि वजह सिर्फ़ इतनी नहीं है, यहां बाज़ार का एक व्यापक खेल भी जारी है. दक्षिण एशिया के सबसे बड़े बाज़ार के तौर पर भारत की स्थिति काफ़ी मजबूत है. ऐसे में किसी भी शक्तिशाली देश के लिए भारतीय बाज़ार से रिश्ते और उस पर अपना नियंत्रण एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक ज़रूरत है. 'हाउडी मोदी' में जहां एक ओर ट्रंप ने वहां मौजूद भारतीय मूल के वोट बैंक पर नज़र डाली है तो दूसरी ओर भारतीय नेतृत्व से अपने रिश्तों की मजबूती ज़ाहिर करना उसके व्यापारिक हितों का महत्वपूर्ण जैश्चर है.
अंतराष्ट्रीय कूटनीति में देशों के आपसी रिश्तों का आधार न्याय नहीं होता. वह परिस्थितियों और ज़रूरतों का एक संतुलन होता है, जो कि कश्मीर में अलोकतांत्रिक ढंग से मानवाधिकारों के जबरदस्त हनन के दौर में भी अमेरिका के राष्ट्रपति को भारत के प्रधानमंत्री के 'मेगा शो' में घसीट लाता है.
फ़वाद वापस दिल्ली लौट गया है- घर से उसका कोई संपर्क नहीं और नौकरी की उसकी तलाश जारी है.