'कछुआ और ख़रगोश' कहानी के बीच कबूतर
सागर-मन्थन में कछुवे की पीठ पर मन्थन चल रहा है, सभी चौदह रत्न निकल रहे हैं. यह किसी एक ऐसे बाज़ार की स्थिति है, जहाँ चौदह नवीन और लोभजन्मक वस्तुएँ बाहर आ रही हैं. मथने वाले उनके प्रति ललचा रहे हैं. किन्तु जो उन्हें धारण करके मन्थन को सम्भव बना रही है, वह कूर्मवृत्ति है.
- डॉ. स्कनद शुक्ल

कछुवे और खरगोश का विरोधाभास कथा बन कर हमारे बचपन में प्रवेश कर जाता है. हम यह पढ़ते हुए बड़े होते हैं कि खरगोश जल्दबाज़ होता है, कछुवा धीमा. दोनों एक दौड़ में भाग लेते हैं. किन्तु बीच में खरगोश सुस्ताने लगता है और कछुवा बिना सुस्ताये दौड़ जीत जाता है.
यह कथा दरअसल बच्चों में तन्मयता बढ़ाने और तन्द्रा-आलस्य घटाने के लिए गढ़ी गयी है. इसका उद्देश्य भी यही है. यह कथा कछुवे को एकदम लक्ष्यरत मानती है और खरगोश को चंचल. खरगोश लक्ष्य को प्राप्य नहीं प्राप्त मानता है और इसलिए आराम फ़रमाने बैठ जाता है. प्राप्य और प्राप्त में अन्तर होता है. कछुवा इस अन्तर को समझता है. सो वह जीत जाता है. शनैश्चार से गति हारती है , निरन्तरता से क्षणिकता. बच्चो , टीम भी निरन्तर शनैश्चार करो ! बालको , तुम-सब कछुवे बनो !
इस तरह से बचपन की यह कूर्म-शश-कथा बढ़ती उम्र के साथ नये-नये कलेवर में भोगवृत्ति को नियन्त्रण में रखने की शिक्षा दिया करती है. सागर-मन्थन में कछुवे की पीठ पर मन्थन चल रहा है, सभी चौदह रत्न निकल रहे हैं. यह किसी एक ऐसे बाज़ार की स्थिति है, जहाँ चौदह नवीन और लोभजन्मक वस्तुएँ बाहर आ रही हैं. मथने वाले उनके प्रति ललचा रहे हैं. किन्तु जो उन्हें धारण करके मन्थन को सम्भव बना रही है, वह कूर्मवृत्ति है.
कूर्म जो तल पर धँसा हुआ है, कूर्म जिसे रत्नों की चाह नहीं, कूर्म जो तपस्वी और श्रमशील है. और आगे ज्यों-ज्यों बच्चे वयस्क होते हैं , वे इस कथा को विज्ञान-दृष्टि से पुनः पढ़ते हैं. अब वे मेटाबॉलिज़्म यानी शारीरिक चयापचय को जान चुके हैं.
खरगोश का चयापचय तीव्र है, कछुवे का धीमा. इस चयापचय को योगियों ने भी चिह्नित किया है. प्राणायाम व आसनों में निरन्तर लगे हुए अनेक योग-रत लोग कूर्म-शशक विरोधाभास को पहचानते और इसपर बात करते हैं.
श्रीमद्भगवद्गीता में भी कृष्ण "यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: , इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता" का ज्ञान अर्जुन को देते हैं. योगियों को वस्तुओं से अपनी इन्द्रियाँ उसी तरह विलग कर लेनी चाहिए , जिस तरह कछुवा अपने अंगों को सिकोड़कर अपने खोल में रख लेता है. तभी उसे दिव्य विवेक की प्राप्ति हो सकती है.
ईसप की कथा से पौराणिक सागर-मन्थन तक और फिर श्रीमद्भगवद्गीता तक --- प्राचीन लोग कछुवे की दीर्घजीविता के प्रति आकर्षित रहे हैं. विज्ञान के दृष्टिकोण से समझना शुरू करें, तो मेटाबॉलिज़्म-दर और आयु में एक सीधा और सरल सम्बन्ध नज़र आता है. जितनी तीव्र चयापचय की दर, उतनी छोटी आयु. जितनी यह दर धीमी, उतनी आयु दीर्घ.
ऑक्सीजन ग्रहण करके भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने का काम जीव पूरी उम्र करते हैं. जब परिस्थितियाँ सुखद होती हैं , तब जीव अपने संसाधन यौन-परिपक्वता निभाने में लगाते हैं. समूचे जन्तु-जगत् में इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. खाने-पीने की पर्याप्त उपलब्धता है , इसलिए यौन-परिपक्वता पाने और सन्तान उत्पन्न करने में इनका व्यय किया जाए.
लेकिन भुखमरी की स्थिति आने पर मामला बदलने लगता है. तब जन्तु का शरीर प्रजनन-मोड से जीवनयापन-मोड में चला जाता है. पहले जी लें, प्रजनन तो बाद में भी हो जाएगा --- शरीर इसके लिए कार्य करता है. आनुवंशिक स्तर पर इस तैयारी के लिए अनेक बदलाव होते हैं. भुखमरी एक दैहिक, आंगिक, ऊतकीय और कोशिकीय आपदा है, इसके दौरान यौनकर्म और यौनविकास अपनी प्राथमिकता खो देते हैं.
जीवन और प्रजनन दो सिरे हैं, जो संसाधन खाते हैं. संसाधन खपाने के लिए जीव आजीवन जीने और यौनक्रिया करने में चुनाव करते रहते हैं. यह बँटवारा ताउम्र चलता रहता है. यहाँ भी तुलना करने पर कछुवे में प्रतिकूलता में जी सकने की निरन्तर जिजीविषा नज़र आती है, खरगोश तीव्र प्रजनन को प्राथमिकता देता जान पड़ता है. पर केवल जीवन-प्रजनन में हो रहे इस संसाधन-विभाजन और चयापचय-दर के धीमे या तीव्र होने से जीवन का छोटा या लम्बा होना नहीं समझा जा सकता.
छोटे से शरीर वाला कबूतर अपनी तीव्र चयापचय-दर के बावजूद पच्चीस-तीस साल तक जी जाता है. वह आसमान की सैर करता है , इस परिन्दे की कितनी ही ऊर्जा उड़ने में खप जाती है. नन्ही देह और तीव्र मेटाबॉलिज़्म के अनुसार इसे मात्र तीन-चार साल जीना चाहिए. पर ऐसा होता नहीं है. ज़ाहिर है कि चयापचय-दर और दीर्घजीविता का सम्बन्ध उतना सीधा-सरल नहीं है, जितना कई बार सोच लिया जाता है.
'क' से कछुवा होता है , 'ख' से खरगोश. पर 'क' से कबूतर भी तो होता है..
--- स्कन्द।
( सेक्स , दीघर्जीविता और मृत्यु के परस्पर सम्बन्ध-अध्ययन पर बातें जारी रहेंगी ... )