top of page

ग़ुस्सा, श्राप और नक़्कारखाने की तूती

अंदर ग़लत के लिए ग़ुस्सा बहुत है पर ग़ुस्से की निकासी नहीं है। इसलिए गालियां ग्रेनेड के टुकड़ों की तरह मेरे अंदर धंसी पड़ी हैं। पर यह गालियां उस वीराने में जहां मेरे सिवा एकांत भी नहीं, नक़्कारखाने में तूती का मरण हैं, अपच की डकार हैं, आदर्श की जुगाली करने सा है।

- प्रभात कुमार उप्रेती

कोरोना काल के बाद प्लास्टिक कूड़े का ढेर देखा तो हुआ कि बहुत से क़ुदरत की दहशत से बेग़ैरत लोगों को हाथ में वाइन लेकर श्राप दे दूं कि 'जाओ अगले जनम में गनेल, चातक, सांप, हाथी, मेढक, गैंडा, राक्षस बन जाओ।''


पर अरे! इन्हें ऐसे श्राप देना तो इनकी इज़्ज़त अफ़जाई करना है। इन्हें तो श्राप देना चाहिए... 'जा तेरा अगला जन्म ही न हो। एक ही जन्म में तूने दुनिया को सताने का कोटा पूरा कर दिया।'


अंदर ग़लत के लिए ग़ुस्सा बहुत है पर ग़ुस्से की निकासी नहीं है। इसलिए गालियां ग्रेनेड के टुकड़ों की तरह मेरे अंदर धंसी पड़ी हैं। पर यह गालियां उस वीराने में जहां मेरे सिवा एकांत भी नहीं, नक़्कारखाने में तूती का मरण हैं, अपच की डकार है, आदर्श की जुगाली करने सा है।


जब हम सफाई अभियान में होते थे हमारे अंदर एक शांति का नूर चमकता था। हम पर आक्रमण भी हुए, पर हमारे अंदर करुणा जागती थी.. ईसा के प्रवचनों जैसे हमारे भाव होते... कि ''हे प्रभु, इन्हें माफ़ करो! ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।'' यह कमाल का भाव है जो हमें उस समय अभय से प्यार से भर देता था।


वैसे हम भारतीय इतने सफाई पसंद थे कि हमने एक जाति ही सफाई के लिए बना कर उन्हें कूड़े से बद्तर बना दिया. अपनी सफाई दूसरे के लिए सार्वजनिक गंदगी बना दी। ऐसे ही कितने ही कोने हैं सिक (sick) समाज के. सिक यानि बीमार समाज के..


पर आज पता नहीं अंदर क्या ट्रांस्फॉर्मेशन हुआ कि यह कथन कि 'कोई एक गाल में थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल सामने कर दो' अजीब लगने लगा... और मन है कि इन दुष्कर्मियों को ज़ोर का लप्पड़..(लप्पड़ नहीं... यह तो प्यार का शब्द है) वो कंटाप, रैपट, डंडा खेंच कर मारूं कि सीधा मुंह टेढ़ा हो जाये। मेरे इस काम पर मुझ पर एफ़आईआर के बदले मुझे सम्मान देकर शाॅल इस सर्दी में उड़ाया जाय। गर्मी में शाह-ए-जमजम रूहअफ़जा की बोतल दी जाय।


फिर सवाल कौंधता है क्या हमें हक़ है इस तरह एक निरीह ग़ुस्सेबाज होने का! गांधी जी की नजर में मैं अब क़ायर, डरा हुआ बंदा हूं। लेकिन महसूस कर रहा हूं कि सही चिंतन को लागू करने के लिए भौतिक ताक़त की दरक़ार है.. सिविक सेंस की भलाई पश्चिम में भी ताक़त के दम से ही आयी और अब वहां जीनोम फ़िक्स हो गया है..


गांधी जी का रूपान्तरण समाज में कहां! पर तुर्की को क़माल पाशा ने पूरा बदल दिया.. इधर मार्क जुक़रबर्ग भी अपनी ताक़त से पूरी दुनिया का सिनैरियो ही बदल रहा है..


कहते हैं एक दमदार प्रशासक सिस्टम को हिला देता है.. इधर मोदी जब से आए हैं तो सफ़ाई अभियान छेड़ा है.. अपनी ही पार्टी के बूढ़े बुजुर्गों की सफ़ाई कर डाली.. और सफ़ाई.. सफ़ाई करते रहे.. असली सफ़ाई के को जनता पर छोड़ हृदय परिवर्तन का नग़मा हवा में छोड़ दिया.. झाड़ू ऐसा ब्रांड बना कि नेता और ​अधिकारी भी साफ़ जगहों पर क़चरा उढ़ेल उढ़ेल कर झाड़ू के साथ तस्वीरें खिंचाते नज़र आने लगे.. झाड़ू एक क़दम आगे निकला.. उसे थामे एक आदमी ने दिल्ली जीत ली..


ख़ैर! कई साल हुए पिथौरागढ़ में पॉलीथीन अभियान से पॉलिथीन बंद हुई तो मैं ऐसे तर हो रहा था.. उछल रहा था जैसे मैंने फ़्रांसीसी क्रांति कर डाली हो.. एक पॉलिथीन विक्रेता ने मेरी तरफ़ इज़्जत के साथ अश्लील वाक्य की गिलौरी लपेटी और चैलेंज करते हुए कहा, ''गुरूजी ये हिंदुस्तान है आप हमारा कुछ ना उखाड़ पायेंगे.. एक तिनका भी इधर से उधर ना होगा.. हिम्मत है तो पॉलिथीन को सोर्स पर बंद करके दिखाओ..''


वह फ़ेसबुकिया चैलेंज नहीं, रियल चैलेंज था. और बरक़रार है. और साथ ही मेरे भीतर ग़ुस्सा.. श्राप और गाली ग्रैनेड के छितरे टुकड़े से मची ख़लबली भी जिसकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती जैसी है..!


ज़िंदगी के मैडिटेशन में मशगूल प्रभात कुमार उप्रेती,

कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर हैं.

रिटायर्मेंट के बाद हल्द्वानी में रहते हैं और समाजसेवा के कामों में सक्रिय हैं.

bottom of page