रवीश कुमार के नियमित पाठकों के लिए भी नई है उनकी नई किताब
वे यह सब फेसबुक पर लगातार लिखते हैं और मेरे जैसा पाठक उन्हें पढ़ते रहता है. फिर भी यह किताब खरीद ली, यह सोचकर कि किताबों की अलमारी में रहेगी, कोई पढ़ना चाहे तो उसे दे सकूँगा. मगर इस किताब ने मेरी इस धारणा को बदल दिया.
- पुष्य मित्र

रवीश कुमार की नई किताब 'बोलना ही है' को मैने इसलिये नहीं खरीदा था कि इसमें मुझे कोई नई जानकारी मिलेगी. एक धारणा बनी हुई थी कि इस किताब में भी वही सब होगा जो वे लगातार अपने फेसबुक पोस्टों में लिखते रहते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वालों को न सिर्फ़ ऑनलाइन ट्रोल किया जाना बल्कि उनकी हत्या तक कर देना, फ़ेक न्यूज़ के मायाजाल में सच्चाई को ढकने की कोशिश. टीवी न्यूज़ चैनलों का सरकारी भोंपू में बदल जाना. कुल मिलाकर जनपक्ष आवाजों को दबाने की कोशिशें. वे यह सब फेसबुक पर लगातार लिखते हैं और मेरे जैसा पाठक उन्हें पढ़ते रहता है. फिर भी यह किताब खरीद ली, यह सोचकर कि किताबों की अलमारी में रहेगी, कोई पढ़ना चाहे तो उसे दे सकूँगा. मगर इस किताब ने मेरी इस धारणा को बदल दिया.
यह किताब उनके फेसबुक स्टेट्स का क्लेक्शन नहीं है, जिस तरह 'इश्क में शहर होना' थी. हालांकि उनके कुछ फेसबुक स्टेट्स को चुनकर बड़ी आसानी से यह किताब बन सकती थी. मगर ऐसा नहीं किया गया. यह मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमलों को समझने के लिए एक मुक़म्मल किताब है. इसमें अलग अलग अध्याय अलग-अलग सवालों को सम्बोधित करते हैं. पूरी किताब एक खास टोन में लिखी गयी है और उसमें निरंतरता है. ऐसा लगता है कि रवीश ने तमाम बातें नये सिरे से, कुछ अतिरिक्त शोध करके लिखी हैं. इतने व्यस्त रूटीन में, टीवी की नौकरी, फेसबुक के स्टेट्स लिखते हुए उन्होने यह काम कब और कैसे किया होगा समझना आसान नहीं है.
इस किताब की सबसे खास बात है इसका सम्पादन. सम्पादन से आशय सिर्फ़ प्रूफ़ और कॉपी चेक करना नहीं बल्कि किताब को एक बेहतरीन शक्ल देना है. उसके विषयों और अध्यायों की योजना बनाना है. कन्टेन्ट की ऐसी व्यवस्था करना है कि पाठक को कुछ भी मिसिंग न लगे. सम्भवतः इसी ने 'बोलना ही है' किताब को सर्वविदित कन्टेन्ट होने के बावजूद पठनीय, रोचक और मुक़म्मल किताब बना दिया है. यह सम्पादन अंग्रेजी वाले प्रकाशन स्पीकिंग टाइगर ने किया है, या राजकमल की टीम ने यह वही लोग बता पायेंगे. मगर मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि राजकमल की टीम कई दफ़ा किताब की रचना के वक़्त लेखक से इन मसलों पर बातचीत करती है और उसे इस तरह के सुझाव देती है.
जब मैं चंपारण सत्याग्रह वाली किताब लिख रहा था, उसी वक़्त प्रभात खबर में मैं चंपारण सत्याग्रह पर आलेखों की शृंखला भी लिख रहा था. कन्टेन्ट एक ही था, मगर वे आलेख बिल्कुल अलग हैं और किताब अलग. किताब कैसे शुरू करना है और फिर अध्याय कैसे होंगे इस मसले पर सत्यानंद निरुपम जी ने मुझे एक बैठक में कई सुझाव दिये थे, उन्होने पूरी किताब के बारे में मुझसे विस्तृत बातचीत की थी. बाद में सम्पादकीय टीम ने कई दफ़ा बातचीत की. मेरी पूरी किताब को जिन्होने एडिट किया, उनसे तो मेरी कभी बात तक नहीं हो पायी.
दूसरे प्रकाशनों में यह प्रक्रिया कैसे होती है, यह मुझे नहीं मालूम. क्या लेखक जो लिख कर दे देते हैं वही किताब बन जाती है या वहां भी किताब की कन्टेन्ट प्लानिंग डिस्कस की जाती है? मेरा मानना है कि यह डिस्कस होनी ही चाहिये. किताब एक आदमी के लिखने की चीज नहीं है, इसमें सम्पादक की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है. अगर कोई किताब सम्पादक की योजना पर काम करते हुए कोई लेखक लिखता है तो उस किताब में सम्पादक को भी क्रेडिट दिया जाना चाहिये.
बहरहाल यह किताब तो वैसे भी अलग-अगल कारणों से खूब ख़रीदी और पढ़ी जा रही है, मगर मेरे लिए यह किताब बेहतरीन सम्पादन और किताब की कन्टेन्ट प्लानिंग की वजह से खास है. इसलिये मैं रवीश के साथ साथ राजकमल प्रकाशन और स्पीकिंग टाइगर की पूरी सम्पादकीय टीम को भी शुभकामनाएं देना चाहूँगा.