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'नए शीत युद्ध की कग़ार पर नेहरू की याद'

मौजूदा हालातों में जब कोरोना महामारी के संक्रमण के और हॉन्ग कॉन्ग में बढ़ रहे तनाव बीच अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध छिड़ने के आसार नज़र आने लगे हैं, तब भारत समेत तीसरी दुनिया के तमाम देश नेहरू की इस विरासत से काफ़ी कुछ सीख सकते हैं.

— अभिनव श्रीवास्तव





आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने साल 1961 में सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड में हुए गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में परमाणु शक्ति को पूरी मानव सभ्यता के लिए विनाशकारी बताते हुए ये बातें कहीं थीं.

''आधुनिक परमाणु हथियारों के ख़तरों के बारे में आज सब बात कर रहे हैं, दुनिया के हर एक देश में इसके बारे में चर्चा है. हालांकि हम इसपर बात करते हैं. लेकिन मैं इस बारे में स्पष्ट नहीं हूं कि यहां तक कि जो लोग इसके बारे में बात करते हैं वे पूरी तरह और भावनात्मक रूप से इस बात को समझते भी हैं या नहीं. अगर परमाणु युद्ध छिड़ता है तो हम सभ्यताओं के विनाश की बात करते हैं हम मानव और मानव नस्ल के विनाश की बात करते हैं. तो अगर ऐसा है तो हमें कुछ अधिक होगा. कुछ ऐसा जिससे कि हम इसे होने से रोक सकें. और इसकी चाबी अभी इस या किसी भी दूसरी कॉंफ्रेंस के हाथों में नहीं है. असल में इसकी चाबी दो महाशक्तियों के हाथों में है, यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ अमेरिका और सोवियत यूनियन.''

नेहरू ने दो विश्व युद्धों की विभीषिका की पृष्ठभूमि में भारत के प्रधानमंत्री पद की कमान संभाली थी. उनके सामने अमेरिका और सोवियत रूस के ख़ेमों में लगातार बंट रही दुनिया के बीच भारत के आंतरिक और वैश्विक हितों को सुरक्षित रखने की अभूतपूर्व चुनौती थी. गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाकर उन्होंने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लगभग डेढ़ दशकों तक जिस सजगता से इन दोनों ही मोर्चों पर भारत के हितों की रक्षा की, उसकी मिसाल मिल पाना मुश्किल है.


मौजूदा हालातों में जब कोरोना महामारी के संक्रमण के और हॉन्ग कॉन्ग में बढ़ रहे तनाव बीच अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध छिड़ने के आसार नज़र आने लगे हैं, तब भारत समेत तीसरी दुनिया के तमाम देश नेहरू की इस विरासत से काफ़ी कुछ सीख सकते हैं. बीते कुछ सालों में अमेरिका से लेकर दक्षिण एशिया तक में पॉपुलिस्ट नेताओं का उभार हुआ है. हालांकि सत्ता में आने के बाद भी इन नेताओं के पास वैसी राजनीतिक वैधता नज़र नहीं आती, जिसने नेहरू को सही मायनों में अपने वक़्त का विश्व नेता बनाया था. उनकी विरासत इस मायने में भी आज की दुनिया को राह दिखा सकती है.


यह दोहराने की जरूरत नहीं कि नेहरू ने अपने समकालीन दिग्गज नेताओं से पहले ही धर्म के नाम पर होने वाली संगठित गोलबंदी के ख़तरे भांप लिए थे. इसी कारण वे आज़ाद भारत में अपने कार्यकाल में इस तरह की धार्मिक गोलबंदियों के ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहे. भारत में लोकतंत्र के उदार मूल्यों को सींचने के मामले में नेहरू का कोई सानी नहीं रहा. मौजूदा हालात इस नजरिए से भी उनकी विरासत के मूल्यांकन की मांग करते हैं.

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