यौन शिक्षा का भूत: #3 सेक्स का गुलदस्ता
सेक्स का पूरा ताना-बाना इसी अण्डाणु-शुक्राणु मिलन को सुनिश्चित कराने के लिए है. मादा मछलियाँ और मेढकियाँ अपने हज़ारों-लाखों अण्डे बाहर जल में छोड़ देती हैं. नर मछलियाँ और मेढ़क उन्हीं के पीछे अपने शुक्राणु प्रवाहित कर देते हैं. यह काम लगभग संग-संग करना होता है ताकि अधिकाधिक अण्डाणुओं का शुक्राणुओं से सम्पर्क हो जाए और ज़्यादा-से-ज़्यादा नये जीवों का निर्माण हो.
-khidki desk

प्रकृति के अनुसार ज़्यादा बड़ी और मौलिक घटना स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं, बल्कि स्त्री के अण्डाणु का पुरुष के शुक्राणु से मिलन है.
प्रत्येक जीव का स्वभाव स्वयं की वंशवृद्धि है. वह मरना-मिटना नहीं चाहता, उसे सृष्टि में बने रहने के यत्न करते रहने होंगे. जीवों के शरीरों में मौजूद गुप्तांग इसी के लिए निरन्तर प्रयासरत रहते हैं. स्त्री के अण्डाशय और पुरुष के वृषण में यही प्रक्रिया युवावस्था में नित्य चला करती है, ताकि अधिकाधिक जनों को उत्पन्न किया जा सके.
अण्डाशय, जो स्त्री के निचले पेट में (नाभि के नीच वाले हिस्से) में होते हैं, हर महीने एक अण्डाणु का निर्माण करके उसे पास की अण्डवाहिनी (या अण्डवाहिका) में छोड़ देते हैं. यहाँ से वह शुक्राणु से मिलने के लिए चलता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ता है. मिलन हुआ तो ठीक, अन्यथा गर्भाशय-गर्भग्रीवा-योनि के रास्ते मासिक धर्म में शरीर से बाहर हो जाता है.
दोनों अण्डाशय में से किस से अण्डाणु निकलेगा, यह पहले से तय नहीं होता. वह किसी भी अण्डाशय से निकल सकता है. यों यह भी ज़रूरी नहीं कि स्त्री (या पुरुष) के पास दोनों अण्डाशय या वृषण हों ही. एक से भी पूरी ज़िन्दगी सन्तानोत्पत्ति की क्रिया आगे बढ़ सकती है.
सेक्स का पूरा ताना-बाना इसी अण्डाणु-शुक्राणु मिलन को सुनिश्चित कराने के लिए है. मादा मछलियाँ और मेढकियाँ अपने हज़ारों-लाखों अण्डे बाहर जल में छोड़ देती हैं. नर मछलियाँ और मेढ़क उन्हीं के पीछे अपने शुक्राणु प्रवाहित कर देते हैं. यह काम लगभग संग-संग करना होता है ताकि अधिकाधिक अण्डाणुओं का शुक्राणुओं से सम्पर्क हो जाए और ज़्यादा-से-ज़्यादा नये जीवों का निर्माण हो. इन जीवों में एक साथ ढेरों सन्तान पैदा करने का प्रयास होता है. बहुत से (बल्कि ज़्यादातर) अण्डाणु, शुक्राणु से मिलन से पहले व बाद में परजीवियों का आहार बन जाएँगे. बहुत से बाहर के प्रतिकूल पर्यावरण में स्वतः नष्ट हो जाएँगे. जो बचेंगे, वे विकसित होंगे. और उनमें से भी कुछ ही आगे जाकर विकासक्रम में बढ़कर पूर्ण विकसित मछलियाँ या मेढक बनेंगे.
अण्डाणु और शुक्राणु का यों बाहर पानी में मिलना और मिलकर एक नया जीव बनाना ‘बाह्य निषेचन’ कहलाता है. इसमें यौन-कर्मकाण्ड उतना विकसित नहीं होता, जितना हम जैसे मनुष्यों और अन्य स्तनपायियों में होता है। जल में जीवन का यह विकास इस बात का प्रमाण है कि जीवन जल से थल की ओर आया है. लेकिन पानी में एक भयावह शीतलता और परायापन है। वहाँ ख़तरे अधिक हैं. वहाँ जीवन को बचाने के लिए जिस तरह संघर्ष करना पड़ता है, उस तरह और उतना ऊपरी जीवों को नहीं करना पड़ता.
सरीसृपों (जिनमें मगरमच्छ-जैसे जीव आते हैं), पक्षियों व स्तनपायियों में ज्यों-ज्यों हम ऊपरी पायदानों की तरफ़ बढ़ते हैं, यह निषेचन बाह्य से आन्तरिक होता जाता है. इसी आन्तरिकता के साथ ही मातृत्व के अन्य विकसित आयाम गर्भाधान-गर्भविकास-स्तनपान क्रमशः धीरे-धीरे जुड़ते चले जाते हैं.
आन्तरिक निषेचन के क्या लाभ हैं? मनुष्य या अन्य जीव जिस तरह से सम्भोग करते हैं, उससे इन प्रजातियों में क्या सुनिश्चित होता है? अगर लाभप्रद न होता, तो प्रकृति इस तरह से इन प्रयासों को अंजाम न देती. बाह्य निषेचन की तुलना में आन्तरिक निषेचन अण्डाणु और शुक्राणुओं को सुरक्षित माहौल प्रदान करता है. सेक्स द्वारा जैसे ही स्त्री-शरीर के भीतर शुक्राणुओं पहुँचने लगते हैं, वैसे ही बाह्य परजीवियों और प्रतिकूल पर्यावरण से उनके और अण्डाणु के नष्ट होने का ख़तरा नहीं रहता. फिर यह निषेचित अण्डाणु भ्रूण बनकर माँ के पेट में पनपता है और एक निश्चित गर्भाधान-काल के बाद शिशुरूप में बाहर आता है.
लेकिन गर्भ में सन्तानों को रखकर पोषित करने के साथ एक समस्या भी है. बाहर खुले में तो मछली-मेढकी चाहे जितने भी अण्डाणु छोड़ दे, लेकिन भीतर वह हज़ारों बच्चों को विकसित नहीं कर सकती. उसके शरीर की भी एक सीमा है: वह एक समय में एक साथ सबको पोषण कैसे मुहैया करा पाएगी? इस कारण प्रकृति में फिर बदलाव होता है. मादाओं के शरीर में बनने और शुक्राणु से मिलन हेतु निकलने वाले अण्डाणुओं की संख्या में कमी आती जाती है. मगरमच्छों, चिड़ियों और स्तनपायियों जैसे कुत्तों-बिल्लियों-खरगोशों में एक से अधिक अण्डाणु निषेचित होकर गर्भाशय में विकसित होते हैं, लेकिन हाथियों-मनुष्यों-गायों इत्यादि में यह भी मुश्किल होता जाता है. यहाँ एक बार में यह संख्या एक ही सन्तान तक सिमट जाती है.
फिर एक दूसरी बात भी है. छोटे जीवों की तुलना में बड़े और ऊपरी पायदानों के जीवों के विकास में समय भी अधिक लगता है. एक मछली का शिशु जितनी जल्दी विकसित होकर आत्मनिर्भर हो जाता है, उसकी तुलना तनिक मानव-शिशु से कीजिए. यही देरी गर्भाधान-काल के रूप में सामने आती है.
मोटे तौर पर कहा जाए तो सेक्स और सन्तानोत्पत्ति की क्रियाओं में कोशिकाओं और आनुवंशिक सामग्री की बर्बादी बहुत की जाती है. बाह्य निषेचन में अत्यधिक, आन्तरिक में कुछ कम लेकिन फिर भी बहुत. जानते हैं प्रकृति ऐसा क्यों करती है?
कारण अधिकाधिक स्वस्थ सन्तानों को संसार में लाना है. कुदरत नहीं चाहती कि वंशवृद्धि की इस प्रक्रिया में विकृतियाँ और विकार नयी पीढ़ी के साथ आगे जाएँ. जो विकृति-विकारग्रस्त हों , वे पहले ही नष्ट हो जाएँ. जो पनपें, वे हर तरह से योग्य और स्वस्थ हों.
साभार
डॉ. स्कन्द शुक्ला