top of page

यौन शिक्षा का भूत #1 : ब्रह्मचारी मोर

Updated: Oct 19, 2019

छूने पर गर्भ नहीं ठहरता, यह इतना भी निविर्वाद सत्य नहीं है जितना में डॉक्टर होने के कारण मानता हूँ. यह अचम्भा तीर की तरह मुझे तब चुभा जब मैने जाना कि भारत में किशोर-काल में यौन शिक्षा का स्तर क्या है. मुख-मैथुन (oral sex) व गुदा-मैथुन (anal sex), जिन्हें क़ानून अवैधानिक और बहुत से समाजों में अप्राकृतिक मानता है, उनसे भी लोग स्त्री के गर्भ ठहरने से भयभीत रहते हैं. किसी अमुक वस्तु को खा लेने से दिव्य महात्मा -महापुरुष के जन्म की तो ख़ैर कथाएँ ग्रन्थ में बहुश्रुत -बहुपठ हैं ही. जो बातें इस तरह के अज्ञान से निकलकर सामने आती हैं.

-khidki desk



विज्ञान न पढ़ने से कैसी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है, यह आजकल समाचार में ठहाके बनकर गूँज रही है. लेकिन सौ ठहाकों पर एकाध दृढ़ स्वर ऐसे भी सुनायी पड़ जाते हैं , जो आँसुओं को मोर के गभार्धान में योगदान मानते हैं. मोर-मोरनी को छोड़िये और आगे चलिए. बीसेक साल पहले एक फिल्म आयी थी- ‘हम दिल दे चुके सनम’. इसमे एक अंतरंग दृस्य मे सलमान ऐश्वर्या से रति निवेदन कर रहे हैं और वे गर्भ ठहरने का ख़तरा बता कर उन्हें मना कर रही हैं .हम लोग उस दृस्य मे ठहाके मारकर उस समय हँसे थे, और हमारे जैसे बहुत से आज भी हँस रहे हैं. लेकिन बहुत सोचनीय प्रश्न यह है कि हँसने के लिए इतने ख़राब चुटकुले हमें मिल ही क्यों रहे हैं? हास्य की बुरी विषय- वस्तु उसकी दयनीयता का प्रतिबिंबन करती है. बौद्धिक के चुटकुले भी ऊँचे दर्जे के होते हैं, जबकि छोटी सोच माँ-बहन की गाली-भर पर निपट जाती है. यौन विषय पर तो चाहे-अनचाहे लोग हँस दिया करते हैं. इस पोस्ट पर भी मेरे कुछ मित्र ठहाके वाला चिन्ह बना सकते हैं. फिर जब बात इतनी मौलिक यौन-अशिक्षा की हो, तब तो बहुत से लोगों को हँसने का मौक़ा मिल जाता है.


छूने पर गर्भ नहीं ठहरता, यह इतना भी निविर्वाद सत्य नहीं है जितना में डॉक्टर होने के कारण मानता हूँ. यह अचम्भा तीर की तरह मुझे तब चुभा जब मैने जाना कि भारत में किशोर-काल में यौन शिक्षा का स्तर क्या है. मुख-मैथुन (oral sex) व गुदा-मैथुन (anal sex), जिन्हें क़ानून अवैधानिक और बहुत से समाजों में अप्राकृतिक मानता है, उनसे भी लोग स्त्री के गर्भ ठहरने से भयभीत रहते हैं .किसी अमुक वस्तु को खा लेने से दिव्य महात्मा -महापुरुष के जन्म की तो ख़ैर कथाएँ ग्रन्थ में बहुश्रुत -बहुपठ हैं ही. जो बातें इस तरह के अज्ञान से निकलकर सामने आती हैं :


वंशवृिद्ध की क्षमता किस पदार्थ में होती है, यह लोगों को पता नहीं. वीर्य (जिसमें शुक्राणु होते हैं ) और अंडाणु के अलावा संसार का कोई भी पदार्थ अकेले या मिलाने पर किसी को भी कैसे पैदा कर सकता है? कुदरत के ये नन्हे तत्व हमे तब दिखे, जब हमने माइक्रोस्कोप बना लिया. आप धर्म के आधार पर किसी भी दिव्य दृष्टि की बात करें , लेकिन दिव्य दृष्टियां तो दरअसल ये ही हैं . सुदूर स्थित विशालकाय ग्रह-तारों को दिखाने वाली दूरदर्शी और समीप सुई की नोक के भी लाखवें हिस्से के बराबर के कीटाणुओं को दिखाने वाली सूक्ष्मदर्शी. ये ही हमें वह सत्य दिखाती है जो हमारी आँख से परे है. जब तक देखगे नहीं, मानगे नहीं. मानना चाहिए भी नहीं. एक बार शुक्राणु को देख लेंगे, तो जान जाएँगे कि आप पैदा कैसे हुए होंगे. एक बार अंडाणु का दर्शन कर लेने पर मातृत्व का एक- कोशिकीय हस्ताक्षर समझ में आ जाएगा.


‘ जर्म ’ (Germ) शब्द का अर्थ कीटाणु बाद में बना, पहले वह बीज था. इसी से ‘जर्मिनल ’ (Germinal) और ‘जर्मिनेशन ’ (Germination) निकले.कालांतर में जब बैक्टीिरया देखे गये, तो एककोशिकीय प्राणी भी बीज-से नज़र आये. बस, फिर उनका नाम भी ‘जर्म’ पड़ गया.

योनि के रास्ते गर्भाशय या अंडवाहिनी में पहुँचा वीर्य ही औरत को गभर्वती कर सकता है. अन्य किसी भी रास्ते यह वीर्य -गभार्शय तक पहुँच ही नहीं सकता. मुँह से, गुदा से, व त्वचा पर मलने से या फिर कुछ भी करने से पुरुष के वीर्य का स्त्री -गभार्शय से संपर्क नहीं किया जा सकता. मुँह से ली हुई हर वस्तु को पाचन-तंत्र में जाना है और पच जाना है. नाक और मुँह के रास्ते ली हुई वस्तु फेफड़ों में भी जाना बहुत हद तक नियत है. इन दोनों तंत्र , जठर-तंत्र और श्वसनतंत्र, का यौनांग से कोई संबंध नहीं है. मलद्वार के रास्ते प्रविष्ट वस्तु भी योनि से जुड़े गभार्शय तक साधारण रूप में नहीं पहुँच सकती, जब तक मलाशय और योनि क्षतिग्रस्त होकर परस्पर जुड़ न जाएँ.

जो जैविक घटना जिस अंग घटती है, उसके लिए कुदरत ने पूरी तैयारी की है. आमाशय में तेज़ाब है, जो हर शुक्राणु को क्षण भर में नष्ट कर देगा. तमाम पाचक रस हैं ,जिनमें किसी भी का जिंदा रहना संभव नहीं. श्वशन -तंत्र वायु के आदानप्रदान के लिए बनाया गया है. वहाँ एक नन्हा सा जलकण या भोजनकण भी खाँसी पैदा करके यह बताता है कि “तुम बाहरी हो, यहाँ तुहारे लिए कोई जगह नहीं”.


स्वतः जीवन की उत्पत्ति जो धर्मगंथों में विविध रूप में वर्णित है, उसे मानने वाले पूरी दुनिया में थे. आज भी हैं. लेकिन दुनिया में एशिया में यह संख्या अधिक है. कारण कि एशियाई समाज आस्थावान् समाज है.आस्था का संबंध भावना से है. प्रबल भावना का उद्दीपन ही आस्था का सुदृढ़ीकरण है. “ऐसा मुझे महसूस होता है, क्या होता है पता नहीं. तुम भी मान लो.” “क्यों माने लें ?” “इसिलए मान लो क्योंकि तुमसे पहले सब मानते आये हैं .प्रश्न मत करो. लक़ीर पर चलते रहो, फ़क़ीर की तरह.” फ़क़ीरी और संतई वृति से सादी है , इसिलए स्तुत्य है .लेकिन चिंतन उनमें पुस्तकीय है, रूढ़िवादी है. उनसे अनुभूित कराने का प्रश्न किया जाएगा तो वे आपकी पात्रता की बात उठा देंगे. आसमान में बृहस्पति ग्रह सबको दिख सकता है, पर बृहस्पति देवता के दर्शन आस्था ही करा सकती है.रेफ्लेक्टिंग व रेफ्रेक्टिंग दूरदर्शी आपको मिल जाएं, यह सरल बात है. आस्था तब तक नहीं मिलेगी, जब तक आप इस खेल को समझ न जाएँ. थक-हार कर आप कह ही देंगे “हाँ, मुझे दर्शन अब होने लगे हैं ”.


पुराने लोग गेहूँ और भूसे से चूहों की उत्पत्ति मानते थे; मगरमच्छ उनके अनुसार पानी में तैरते लट्ठों से उत्पन्न हो जाते थे. यह जीव -विज्ञान का क्या, सामान्य विज्ञान का ही अंधकार-काल था. दर्शन की बात करने वाले सुकरात, प्लेटो , अरस्तू चाहे कुछ भी कह लें , उन्हें विज्ञान की मोटी-मोटी बातें भी न पता थीं. मगर वह उनका ज़माना था, जब तकनीकी नहीं थी. जब किसी को पता नहीं था कि कोशिका किसे कहते हैं ? किसी ने कोशिका देखी ही न थी. मनुष्य के अंग का प्रत्क्ष्य दर्शन ही विरलतम बात थी. तब तालीम का मतलब फ़लसफ़े (दशर्न) होता था- जितना ऊँचा कल्पित दशर्न, उतना विद्वान् व्यक्ति .बस बात खत्म. (वैज्ञानिक पी.सी. रे और मेघनाद साहा ने प्राचीन भारत में उच्च तकनीक और विज्ञान के पतन के लिए जिन कारणों को जिम्मेदार ठहराया वो हैं (i) जाति व्यवस्था का पुनरुत्थान जिससे ‘सोचने’ और ‘करने’ में भीषण जाति विभाजन हुआ और (ii) समाज में पहले से व्याप्त अमूर्त आध्यात्मिक दर्शन और शास्तार्थ की प्रवृति जिसे श्रेष्ठ माना जाता था. Thema Books की The Scientist in Society देखें ).


फिर हमारा प्रतक्ष्य ज्ञान बढ़ने लगा. हमने वह देखना-सीखना शुरू किया, जो अब तक केवल कल्पना के सिद्धात पर आधािरत था. विज्ञान इसी प्रत्यक्षीरकरण का इन्द्रियजन्य स्वरुप ही तो था ! इन्द्रियजन्य सत्य के प्रति तिरस्कार कैसा? जो दिखता और सुनाई देता है, उसे अधूरा बता कर तिरस्कृत करना क्या? अनुभवों को अर्ध -सत्य कहते हुए अनुभूतियों की बातों में जनता को उलझाना किस लिए?


अनुभवों को समझे-समझाये बिना जो समाज सीधे अनुभूतियों की बात करता है, उसके भाग्य में ऐसा ही बुरा हास-परिहास आता है. यह हँसी जब थमती है, तो चेहरे पर दयनीयता का अंधकार फैल जाता है. यह दयनीयता वह है जो हम अतीत से जोड़े हुए है. यह वह आँवनाल (umbilical cord) है हमारी, जो गिरी ही नहीं. जानते हैं जब किसी शिशु की आँवनाल न गिरे या देर से गिरे तो उसे मेडिकल-भाषा में किसका इशारा माना जाता है? शिशु की प्रतिरोधक क्षमता की हालत बहुत-बहुत बुरी है. प्रतिरोध अँधेरे का, प्रतिरोध अज्ञान का- हो नहीं रहा, हो नहीं पा रहा.


डॉ. स्कन्द शुक्ला

bottom of page