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बाज़ार निष्प्राण है: हमें उससे अपने प्राणों की रक्षा करनी है

जीवन को जीवित रखने के लिए अन्य जीवन आसपास होने ज़रूरी हैं। जितना निष्प्राणत्व आसपास होगा , उतना वह जीवन को निष्प्राण करने की कोशिश करेगा। बाज़ार निष्प्राण है : हमें उससे अपने प्राणों की रक्षा करनी है। यही बुराई पर अच्छाई की विजय है। यही विजय-दशमी है।

-स्कन्द शुक्ला


फोटो - गूगल से साभार

मैंने 'मुक़द्दर का सिकन्दर' फ़िल्म न जाने कब और कितनी बार देखी होगी। इस लेख का आरम्भ उसी दृश्य से कर रहा हूँ जिसमें कब्रिस्तान में अपनी दफ़्न माँ के सामने आँसू बहाते अभिनेता मयूर का परिचय बूढ़े फ़क़ीर कादर ख़ान से होता है। मयूर अपनी बहन के साथ हैं और जब उनसे पूछा जाता है कि वे क्यों रो रहे हैं , तो वे अपने मातृशोक का हवाला देते हैं। ऐसे में कादर ख़ान मृत्यु को शाश्वत बताते हुए जीवन का आनन्द लेने के लिए हँसने को कहते हैं। फ़िल्म का शीर्षक-गीत तभी गाया जाता है : "रोते हुए आते हैं सब , हँसता हुआ जो जाएगा। वो मुक़्क़दर का सिकन्दर , जान-ए-मन कहलाएगा !" गीत-आरम्भ के साथ ही मयूर महानायक अमिताभ में बदल जाते हैं और फ़िल्म का दर्शक भरपूर आशान्वित-रोमांचित हो उठता है !


दुःख में कहकहे लगाने की बात में कितनी सत्यता है ? क्या दुःख में मुस्कान का अभिनय दुःखनाशक हो सकता है ? या फिर दुःख में मुस्कुराते रहने की जो बात धर्मशास्त्र और दर्शन-ग्रन्थ अनेक बार बताते हैं, वे यों ही हवा-हवाई बातें कर रहे हैं ?


सत्य में उभय-तत्त्व है। दुःख में मुस्कुराने से दुःख घटता भी है और नहीं भी। अनेक वैज्ञानिक शोध यह सिद्ध कर चुके हैं कि चेहरे पर मुस्कान पहनना भी मस्तिष्क के लिए पीड़ाहारी होता है। स्मितरेखा हमेशा परिणति ही नहीं है , स्मितरेखा उपचार भी है। हम प्रसन्न होते हैं , तब मुस्कुराते हैं --- यह एक बात हुई। हम मुस्कुराएँगे तो प्रसन्न होने लगेंगे , यह दूसरी बात भी सत्यता लिए हुए है।


मगर फिर उन झूठी मुस्कानों का क्या , जो फ़ेसबुक पर जहाँ-तहाँ बिखरी हुई हैं ? मन के पानी की वे काईनुमा हरियाली , जिनके पीछे अवसाद का भूखा मगरमच्छ छिपा हुआ है ? नित्य हँसी-ठट्ठे के चित्र अपलोड करने के बाद भी लोग भीतर से एकदम दरके हुए हैं , वे टूट कर बिखर चुके हैं। उनके लिए क्या मुस्कान उपचार नहीं ? फिर हम सोशल मीडिया पर मौजूद फ़ेक स्माइल और फ़ेक ख़ुशी को इतना गर्हित क्यों मानते हैं ?


समस्या मुस्कुराने में नहीं है , दुःख को बिना समझे मुस्कुराने में है। समस्या यह प्रश्न में निहित है कि दुःख के जल-भराव को मुस्कान तिरपाल बनकर महज़ ढाँप रही है , या अपनी धूपीली आँच से उसे भाप बना उड़ा रही है। मनोरोगों के मच्छर दुःख के जल में तब पनपते हैं , जब दुःख की स्वीकृति के बिना मुस्कुराया जाता है। पीयर-प्रेशर के लिए जबरन मुस्कराना और स्वयं को महान् कष्टमुक्त दिखाना . न मुस्कुरा कर रोते रह जाने से कहीं अधिक बुरा है।


समस्या यह है कि प्रदर्शन सोशल मीडिया की मजबूरी है। समाज का हर इंसान विज्ञापन हुआ जा रहा है : वह स्वयं को किसी-न-किसी रूप में बेच रहा है। विज्ञापन कभी सच्चे कष्ट नहीं बेच सकते : उन्हें छद्म सुख बेचकर दौड़ में बने रहना है। यह दुनिया में पब्लिश ऑर पेरिश का रोग है : जो नहीं खिला हुआ है , वह नहीं बिक सकेगा ! और जो बिकेगा नहीं , उसका सामाजिक अस्तित्व मिट जाएगा। सो चाहे दरक जाए निजी व्यक्तित्व ,चाहे बिखरा हो इंसान का रेशा-रेशा भीतर से , किन्तु वह बाहर से झूठ-मूठ प्रमन-प्रसन्न रहे , जगमगाता-खिलखिलाता हुआ !


दुनिया-भर के अनेक धर्म और दर्शन जब दुःख में मुस्कुराने को कहते हैं , तो वे दुःख को अ ) एक्सेप्ट यानी स्वीकार करने को कहते हैं ब ) उस दुःख के कारण पर विचार करने को कहते हैं स ) सन्तोष नामक औषधि से उस दुःख के उपचार की बात सामने लाते हैं। स्वीकार-विचार-उपचार की इस त्रयी से ढेरों कष्टों से ढेरों लोग उबर जाते हैं और तब वे मुस्कुराते हैं। यह मुस्कान भीतर से आती है , महज़ उसका प्रदर्शन नहीं होता।


अब अगर दुःख की स्वीकृति के बिना , उसके कारण पर विचार के बग़ैर और सन्तोष की जगह 'और-और-और' का जाप करते हुए केवल सेल्फ़ी में मुस्कुराया जाएगा , तो यह उपचार कैसा ? रोगनाश के स्थान पर यह तो रोगवृद्धि हुई ! बातिन से ज़ाहिर तक आने की बजाय जब मुस्कान ज़ाहिर पर महज़ चिपका ली जाएगी , तो क्या वह भीतरी सीलन से उखड़ कर गिर न जाएगी ! कितने दिन चल सकेगा हमारा अभिनय यह !


बाज़ार में कोई दुकानदार दुःखी नहीं दिख सकता। बाज़ार में दुःख की स्वीकृति ही नहीं है। जब स्वीकृति नहीं है , तब विचार-विमर्श नहीं है। और जहाँ विमर्श नहीं है , वहाँ सन्तोष को दवा कौन माने ? अगर सन्तोष को उपचार मान लिया गया , तो बाज़ार बन्द न हो जाएगा ? तो इसलिए अवसाद से लोग दरकते रहें , आत्महत्या करते रहें , बाज़ार में मुस्कान की जगमग बनी रहेगी। बाज़ार मुस्कुराता रहेगा , वह ख़रीद की खनक लिए खिलखिलाता रहेगा। जो यहाँ हैं , वे मुस्कुराते-मुस्कुराते एक दिन 'आय क़्विट' लिख कर चले जाएँगे सदा के लिए ...


प्रदर्शन का एक विशियस सर्कल है। एक आत्मपोषी चक्र। प्रदर्शन से सुखानुभूति , सुखानुभूति से और प्रदर्शन। फिर प्रदर्शन से और सुखानुभूति और फिर उससे और प्रदर्शन। प्रदर्शन रावण है , दस सिरों वाला। बाज़ार ही उसकी लंका। रामचरितमानस के 'जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई' की तरह जितने उसके सिर काटो , वह उतना तेज़ी से बढ़ता है। कारण कि अमृत उसकी नाभि में है। बाण हमें वहाँ चलाना है। लेकिन पहले अमृत की उपस्थिति को बूझना है , उस पर बाण साधना है , फिर उसे छोड़ना है ताकि उसे सोख लिया जाए। स्वीकार-विचार-उपचार , फिर वही बात !


रावण-वध के लिए स्वयं से प्रश्न यह किया जाना चाहिए कि हम अकेले बिना किसी यन्त्र-गैजेट-मशीन के भावनाओं-सम्बन्धों-साहचर्यों के बीच कितने घण्टे प्रतिदिन रहते हैं। जीवन में रिश्ते कितने शेष बचे हैं ? मित्र कोई समय बाँटता है ? प्रेमी कोई साथ चलता है ? घर में कोई पालतू जीव है मन स्नेहिल रखने के लिए ?


जीवन को जीवित रखने के लिए अन्य जीवन आसपास होने ज़रूरी हैं। जितना निष्प्राणत्व आसपास होगा , उतना वह जीवन को निष्प्राण करने की कोशिश करेगा। बाज़ार निष्प्राण है : हमें उससे अपने प्राणों की रक्षा करनी है।


यही बुराई पर अच्छाई की विजय है। यही विजय-दशमी है।



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