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तुर्की में भी था एक अयोध्या, जहां अब कोई विवाद नहीं

तुर्की के एक ऐसे शहर की कहानी जिसका वि​वाद हू ब हू अयोध्या की तरह था. मगर उसे सुलझा दिया गया. पढ़ें क्या है यह कहानी और कैसे सुलझा विवाद.

- मनमीत



अगले कुछ ही देर में अयोध्या में क्या होगा, उस पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने वाला है. विवादित जमीन पर मंदिर बने या मस्जिद. इस पर सियासी दलों के साथ ही देश भर की निगाहें हैं. भारत के इतिहास में सबसे पुराने मुकदमों में से एक बाबरी मस्जिद और राम मंदिर मुकदमा आज राजनीतिक दलों की भविष्य की रणनीति भी तय कर देगी. जो नही करेगी, वो है आम लोगों की गुरबत और उनकी जरूरत. इस नजायज़ युद्ध में तर्कां और कुतर्कों की बिसात चुनाव तक बिछायी जाएगी. फिर देश की ग़ुरबत से जंग कर रही जनता, धार्मिक चश्मा पहनेगी और वोट दे देगी.


बहरहाल, पिछले दिनों तुर्की के पहले शासक मुस्तफ़ा केमल अतातुर्क को पढ़ रहा था. पढ़ते-पढ़ते सोचने लगा कि काश ये नेता हमारे यहां भी 1947 के बाद आधुनिकता की बुनियाद डालने वालों में होता, तो क्या होता? तो वो ही होता, जो तुर्की में 1923 को हुआ. फिर जो 1931 में हुआ और फिर 1932 में भी हुआ.


ये एक कहानी है. कहानी एक सफल देश की और उसके महान नेता की. असल में, प्रथम विश्व युद्ध का सबसे बड़ा फ़ायदा तुर्की को हुआ था. तुर्की उससे पहले ऑटोमन सम्राज्य का हिस्सा 14 वीं शताब्दी से था. तुर्की एक मुस्लिम बहुल देश था. जहां पर ख़लीफ़ा शासन की व्यवस्था थी और इस्लामी क़ानून से देश चलता था. आज़ादी के बाद 1923 में तुर्की में तख़्ता पलट हुआ और मुस्तफ़ा केमल अतातुर्क के हाथों सत्ता की बागडोर आई.


केमल अतातुर्क के हाथों सत्ता आते ही देश की तक़दीर बदल गई. उन्होंने सबसे पहले देश से ख़लीफ़ा शासन व्यवस्था के साथ ही इस्लामी क़ानून व्यवस्था समाप्त करवा दी. उन्होंने तुर्की पीनल कोड के तहत क़ानून प्रक्रिया शुरू की और देश को सेकुलर घोषित कर दिया. उन्होंने दो साल के भीतर देश में बीस हजार स्कूल खोले. जहां केवल लड़कियों की पढ़ाई होनी थी. उन्होंने देश का तत्कालीन पाठ्यक्रम बर्ख़ास्त कर दिया और आधुनिक विज्ञानवाद की नींव रखी. उसके बाद तुर्की वहां पहुंचा, जहां आज है. ख़ैर....


हम अयोध्या मुद्दे पर मुस्तफ़ा केमल अतातुर्क को क्यों याद करें? उन्हें बिल्कुल याद किया जाना चाहिये. उन्हें याद किया जाना चाहिये तुर्की के हेगिया सोफिया शहर के लिये. जहां एक बहुत बड़ा विवाद पल रहा था. ये हेगिया सोफिया तुर्की का अयोध्या शहर था. विवाद था कि, हेगिया सोफिया में 14 वीं शताब्दी से पहले एक चर्च हुआ करता था. जिसे ‘चर्च ऑफ डिवाइन विस्डम’ के नाम से जाना जाता था. आरोप था कि 1453 में जब तुर्की ऑटोमन सम्राज्य के अधीन आया तो यहां पर चर्च के बदले मस्ज़िद बना दी गई. जिसको लेकर तुर्की के मुस्लिम और ईसाई अतिवादियों में शताब्दियों की नफरत थी. 1931 में केमल अतातुर्क ने दोनों पक्षों को बुलाया और सुलह करने की कवायद शुरू की.


जब कवायद सफल नहीं हुई तो 1935 में सरकार ने इस विवादित स्थलप पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे म्यूज़ियम घोषित कर दिया. साथ ही सरकार ने इस स्थल को पूर्ण रूप से सेकुलर घोषित कर दिया. आज दुनिया भर के टूरिस्ट यहां आकर टिकट खरीदते हैं और संग्राहलय का आनंद उठाते हैं. देश के मुस्लिम अतिवादियों ने इसका घोर विरोध किया. लेकिन केमल अतातुर्क ने दो टूक कहा, देश आगे बढ़ेगा. जिसे पीछे की ओर मुड़ना है, वो देश में नहीं रहेंगे. और सही में, तुर्की आगे बढ़ गया. इसके दो साल बाद केमल अतातुर्क ने फिर कहा, हमारे देश के मुस्लिम दुनिया के सबसे आधुनिक मुस्लिम बनेंगे. आज तुर्की में विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों के परिसरों में बैठे युवा अपना इतिहास पढ़कर हेगिया सोफिया के विवाद पर मुस्कुराते हैं और केमल अतातुर्क को शुक्रिया बोलते हैं.

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