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कहां गए मेंढक?

“वह तो ठीक है, लेकिन इस बार उनकी आवाज़ ही नहीं सुनाई दे रही. मैदान में पानी भरा है पर मेंढक नहीं हैं. चिंता का विषय यह है कि मेंढक कहां गए? सोचा, आप से पूछूं.”

- देवेन मेवाड़ी

कल बारिश नहीं हुई थी लेकिन, देर शाम वरिष्ठ साहित्यकार डा. रमेश उपाध्याय का फ़ोन आया तो मन रिमझिम हो उठा. उनकी ओर, पिछले दिनों झमाझम बारिश बरसने और बाहें फैलाकर झूमते नीम की तस्वीरें देख चुका था. उनका लिखा भी पढ़ चुका था कि “बहुत तरसाने के बाद बरसात आई है. मौसम ख़ुशगवार है तन-मन प्रसन्न है.”


इसके बावजूद फ़ोन पर उन्होंने जो कुछ कहा उसमें अपने आसपास की दुनिया की चिंता करते एक गंभीर और संवेदनशील लेखक की आवाज सुनाई दी. उनकी वह चिंता मेंढकों के बारे में थी. फोन पर उन्होंने कहा, “हमारे पास में ही एक खेल का मैदान है. बरसात के बाद हर साल उसमें ख़ूब पानी भर जाता था और मेंढक आकर खूब बोलने लगते थे.”


मैंने कहा, “डा. उपाध्याय यह मेंढकों के प्यार का मौसम है. उनकी प्रजनन ऋतु. वे मादाओं को रिझाने के लिए टर्र-टर्र का एकल या सामूहिक गीत गाते हैं.”


“वह तो ठीक है, लेकिन इस बार उनकी आवाज़ ही नहीं सुनाई दे रही. मैदान में पानी भरा है पर मेंढक नहीं हैं. चिंता का विषय यह है कि मेंढक कहां गए? सोचा, आप से पूछूं.”


मैं चौंका और ख़ुशी भी हुई कि रचना कर्म में डूबे एक साहित्यकार को भी मेंढकों की इतनी चिंता है. मैंने कहा, इधर जलवायु बदलने से प्रकृति में बहुत कुछ गड़बड़ा रहा है. कई बार वसंत इतनी देर में आता है कि फूल ही नहीं खिल पाते. तापमान न बढ़ने के कारण प्यूपा के भीतर से तितलियां नहीं निकल पाती. वे वहीं दफ़्न हो जाती हैं. मेंढक भी प्रचंड गर्मी में ज़मीन के भीतर, यहां-वहां बिलों में छिपे होंगे. लेकिन, अब देर से ही सही, बारिश होने पर उन्हें बाहर निकल आना चाहिए था. वे निकल आते तो आपके यहां खेल के मैदान में गीत गा रहे होते.


अब मुझे भी इस बात की चिंता हो रही है कि कहीं कीटनाशकों के ज़हर ने तो मेंढकों की जान नहीं ले ली है? हम कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग करने लगे हैं. इधर कोरोना वाइरस की रोकथाम के लिए भी ज़हरीली दवाइयां छिड़की जा रही हैं. इन जहरीले रसायनों का सीधा असर कीट-पतंगों पर होता है. कीट-पतंगें मेंढकों का भोजन हैं. इसलिए वह जहर मेंढकों में भी पहुंच जाता है और उनकी जान के लिए ख़तरा बन जाता है.


मैंने यह सोचा, फिर ‘जंगल कथा’ के प्रिय लेखक और पत्रकार संजय कबीर को फ़ोन किया कि यमुना बायोडाइवर्सिटी के डा. फ़ैंयाज़ ख़ुदसर तथा अपने परिचित अन्य पर्यावरण विशेषज्ञों से भी पता कर दीजिए. उन्होंने डा. फ़ैंयाज़ से चर्चा की. पता लगा कि शहर बढ़ने से वैटलैंड घटते जा रहे हैं. नमी के इलाक़े घटने के कारण मेंढकों की बिरादरी के उभयचर भी घटते जा रहे हैं. जलवायु परिवर्तन से भी इनकी संख्या में कमी आ रही है.


फिर सोचता रहा कि पूरे भूमंडल और मानव समाज की फ़िक्र करने वाले एक साहित्यकार को अपने मुहल्ले के मेंढकों की भी उतनी ही शिद्दत से फ़िक्र हो रही है. अभी कुछ दिन पहले ही तो उनकी कहानी ‘पागलों ने दुनिया बदल दी’ पढ़ी थी जिसमें उन्होंने पूरे भूमंडलीय समाज के बारे में सोचा था.


‘हिंदी समय’ में जाकर एक बार फिर वह कहानी पढ़ी और लेखक की वैश्विक चिंताओं से फिर रूबरू हुआ. यह भयानक राजनैतिक-सामाजिक हालात की एक गंभीर रूपक कथा है जिसके आइने में हम वर्तमान को एक कुरूप भविष्य में बदलते और फिर एक नई समरस दुनिया में बदलते हुए देखते हैं.


हालात का पूरा विवरण हमें समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा यानी ‘सभूस’ की एक पत्रकार लड़की सुनाती है. वह बताती है कि किस तरह पूरे भूमंडल में समर्थ और असमर्थ देशों तथा लोगों के दो समूह बना दिए गए और विश्व संसद बना कर अति समर्थों ने सत्ता संभाल ली गई. असमर्थ लोगों का उपयोग केवल समर्थों की सेवा करना रह गया.


उन्हें मानव कूड़ा भी नहीं बल्कि जैविक कूड़ा मान लिया गया ताकि उन्हें दफ़नाने के बजाए जैविक खाद की तरह सड़ने-गलने दिया जाए. उस भयानक समय में पूरे भूमंडल में एक अजीब नई बीमारी फैलने लगी- पागलपन की बीमारी. जिसे यह रोग होता, वह अचानक हंसने लगता और किसी भी बात का जवाब देने के बजाए केवल हंसता, हां...हां...हां!

बीमारी फैलती गई और डराने-धमकाने, अत्याचार करने तथा खुलेआम गोली मारने के बावजूद पागलों की संख्या बढ़ती ही गई, इतनी कि सत्ता ने उन्हें घने जंगलों में छोड़ आने के आदेश दे दिए. पागल वहां भी हंसते रहे और उन्होंने अपने आसपास खेती और पशुपालन शुरू कर दिया. शहरों की आबादी में फिर भी पागलों की तादाद बढ़ती गई. वे पुलिस से और सैनिकों से खुले आम कहते- ‘मारोगे? लो मुझे गोली मारो।’


फल यह हुआ कि पुलिस भी सोचने लगी कि वे भी तो मनुष्य हैं. फिर वे क्यों इन असहाय पागलों की हत्या कर रहे हैं? वे वर्दी उतार फेंकते हैं और साधारण जन बन कर, एक-दूसरे की मदद करते हुए खेती-बाड़ी में जुट जाते हैं. हथियारों के कारखाने बंद करके छोटे-छोटे उद्योग शुरू किए जाते हैं. और, एक दिन आईटी विशेषज्ञ मिल कर पूरे भूमंडल में बैंकों के खाते शून्य कर देते हैं.


अचानक अमीर और गरीब का फ़ासला ख़त्म हो जाता है. हर किसी को जीने के लिए एक-दूसरे की मदद करते हुए खेती-बाड़ी और अन्य कार्य करने पड़ते हैं. इस तरह दुनिया भर के सताए हुए पागल दुनिया बदल देते हैं. उस व्यवस्था में सत्ता का शोषक वर्ग स्वयं जमीन पर आ जाता है और बाकी लोगों की तरह ख़ुद भी जीने के लिए सामुदायिक सहयोग करने लगता है.


अंत में, अब ‘अभूस’ यानी असमर्थ भूमंडलीय समाचारसेवा की वही नैरेटर पत्रकार अपने देश में पहुंचती है जहां उसकी भेंट अपनी मां, भाई, भाभी और भतीजी से हो जाती है. भाभी लेखिका है जो एक उपन्यास लिख रही है, ‘पागलों ने दुनिया बदल दी’.


जितनी फ़िक़्र हमारी इस दुनिया की, उतनी ही फिक्र प्रकृति में हमारे साथ-साथ जी रहे मेंढको की भी! आपको तहेदिल से सलाम डा. उपाध्याय.


देवेन मेवाड़ी, 'साहित्य की कलम से विज्ञान लिखते हैं.'

कई महत्वपूर्ण किताबों का लेखन और पत्रिकाओं का सम्पादन.

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