कई रोगों को ख़ुद में समेटा चमगादड़ ख़ुद क्यों नहीं बीमार होता?
ऐसी अनेक बीमारियों को भीतर रखकर भी बहुधा चमगादड़ रोगग्रस्त नहीं होता --- यह बात वैज्ञानिकों के लिए विस्मय का विषय रही है। किस तरह से ये नन्हे जीव अनेक विषाणुओं को शरीर में रखकर भी उन्हें सह लेते हैं --- इस पर ख़ूब शोध किये गये हैं।
-स्कन्द शुक्ल

चमगादड़ मानव-प्रेम का अधिकारी कभी नहीं रहा। प्रेम श्रेष्ठ गुणधर्मधारी को ही अपना आश्रय बनाता है और ऐसे में इस रात्रिचर चर्ममय-पक्षहीन जीव में किसे गुणधर्म की श्रेष्ठता दीख पड़ेगी? वायु में उड़ता यह स्तनपायी पक्षियों के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण कर रहा है ! इसका ऐसा दुस्साहस !
लेकिन चमगादड़ को देख कर घृणाभावी भी विस्मय से भर उठते हैं। रात्रि को अन्धकार में क्षीण दृष्टि के साथ सकुशल उड़ता यह जीव, जब चाहता है किसी कीड़े या फल को अपना ग्रास बना लेता है और जब इसकी इच्छा होती है, पेड़ पर उलटा लटक जाता है।
वृक्ष पर उलटा लटकना बेताल-वृत्ति है। हो-न-हो इन्हीं चर्मदेहियों को देखकर श्मशान पहुँचा कोई साहित्यकार भय और जुगुप्सा से भर उठा हो और उसने बेताल की कल्पना कर डाली हो! प्राचीन कल्पनाओं की ऐसी भयंकारिता पर्याप्त न थी कि आयरिश अब्राहम स्टोकर के ड्रैक्युला का आविर्भाव हो गया। फ़िल्म को देखकर समाज में यह भ्रान्ति सर्वत्र फैल गयी कि चमगादड़ रक्तपायी हिंसा करते अँधेरे में चहुँओर विचरण किया करते हैं।
इस तरह से संस्कृत का जतुका/जतूका मानव-कल्पना का तिरस्कार झेलता उड़ता रहा। रात को कविता लिखते कवि या चित्रनिर्मिति करते चित्रकार के सामने चन्द्रमा या शेफालिका-सा ज्योतिर्मय अथवा सुवासित जो न होगा, वह कला-जगत् में सम्मान्य भला कहाँ समझा जाएगा! लेकिन फिर जब विज्ञान का विकास-क्रम आगे बढ़ा, तब चमगादड़ को भला ज्ञानी अछूत और घिनहा क्यों समझता! सो उसने जगत् के अन्य सभी जीवित जन्तुओं-पादपों की तरह इस जानवर का भी विशद-विस्तृत अध्ययन किया। फलस्वरूप चमगादड़ तो आज भी अन्धकार में उड़ रहा है , पर उसकी जीवन-छवि उजाले में सबके सामने प्रकट हो चुकी है।
सन् 2020 एक विषाणु-जन्य-महामारी के साथ आरम्भ हुआ है, जिसकी शुरुआत चीन के वूहान शहर से हुई है। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इस रोग का स्रोत भी चमगादड़ हैं और उन्हीं से यह रोग मनुष्यों में आ पहुँचा है।वर्तमान कोरोना-संक्रमण ही नहीं, पिछले सार्स और मर्स के भी रिज़रवॉयर चमगादड़ ही हैं। मारबर्ग, निपाह , हेंड्रा जैसे अनेक विषाणु इन्हीं जीवों में पनाह पाते हैं। इबोला का भी घर यही हैं और रेबीज़ में इनमें वास करता है और इनसे फैलता है।
ऐसी अनेक बीमारियों को भीतर रखकर भी बहुधा चमगादड़ रोगग्रस्त नहीं होता --- यह बात वैज्ञानिकों के लिए विस्मय का विषय रही है। किस तरह से ये नन्हे जीव अनेक विषाणुओं को शरीर में रखकर भी उन्हें सह लेते हैं --- इस पर ख़ूब शोध किये गये हैं। चमगादड़ हवा में उड़ने वाले एकमात्र स्तनपायी हैं। स्तनपाइयों के समाज में आधे रोडेंट यानी मूषक-स्पीशीज़ के सदस्य हैं, बाक़ी के चौथाई चमगादड़-स्पीशीज़ के। ( यानी अन्य सभी स्तनपायी-स्पीशीज़ मिलाकर चौथाई में शामिल हैं !) यह जानकारी इसलिए अद्भुत है क्योंकि इससे हमें चमगादड़-स्पीशीज़ का स्तनपाइयों में संख्या-बल दिखता है।
केले, आम और अवोकाडो जैसे अनेक फलों की खेती में इन जानवरों की बड़ी भूमिका है। इन्हीं के कारण इनका परागण होता है और नये फल जन्म पाते हैं। अनेक बीमारियाँ पैदा करने वाले कीड़े-मकोड़ों को ये खाकर हमारी सुरक्षा भी करते हैं। लेकिन फिर चमगादड़ों में पल रहे अनेक विषाणुओं को जब मनुष्य इनसे पा लेते हैं, तो वे भी बीमार पड़ने लगते हैं। लोग जंगलों को काटकर चमगादड़ों के आशियाने उजाड़ते हैं, पशु-मण्डियों में उन्हें लाकर बेचते और फिर खाते हैं --- इन सभी गतिविधियों से वे चमगादड़ में पनप रहे विषाणुओं से ग्रस्त हो जाते हैं।
पशुओं से मनुष्यों में आने वाले रोग ज़ूनोसिस कहलाते हैं और चमगादड़ ज़ूनोसिस के प्रसार में बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। पर वे स्वयं कैसे इन विषाणुओं से बीमारी नहीं पड़ते --- यह जानना दिलचस्प है। उड़ने वाले इन जीवों की ऊर्जा-खपत इतनी अधिक होती है कि बड़ी संख्या में इनके शरीर की कोशिकाएँ टूटा करती हैं और इनसे डीएनए निकला करता है। आम तौर पर अन्य जानवर , जिनमें मनुष्य भी शामिल हैं , इन डीएनए के टुकड़ों के ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रियात्मक बर्ताव करते हैं। ऐसा वे विषाणुओं के डीएनए के खिलाफ़ भी करते हैं। प्रतिरक्षा-तन्त्र की इस प्रतिक्रिया को डीएनए-सेंसिंग का नाम दिया गया है। डीएनए को सेन्स करो यानी समझो, शत्रु का हो तो नष्ट कर दो। चमगादड़ों में यह डीएनए-सेंसिंग कमज़ोर होती है। नतीजन विषाणु इनमें आराम से पलते हैं और उन्हें बहुधा कोई ख़तरा नहीं होता।
लेकिन विषाणुओं और चमगादड़ों का यह कुदरती समझौता ऐसा है कि न चमगादड़ विषाणुओं से बीमार पड़े और न उसका प्रतिरक्षा-तन्त्र इनपर आक्रमण करे। न तुम हमें सताओ , न हम तुम्हें मारें ! तुम भी जियो , हम भी जिएँ ! चमगादड़-विषाणु-एकता ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद ! इतना ही पर्याप्त नहीं है। चमगादड़ अन्य छोटे जीवों की तुलना में दीर्घजीवी भी हैं। कई जातियों के चमगादड़ बीस से चालीस साल तक जिया करते हैं। ऐसे में इतने लम्बे जीवन और लम्बी उड़ानों के साथ वे बख़ूबी मानव-बस्तियों में रोग पहुँचा सकते हैं।
जानने-सीखने का यह क्रम यों ही अनवरत चलता रहे। किन्तु कलाकार की जतुका-जुगुप्सा से वैज्ञानिक को ग्रस्त नहीं होना चाहिए। उसपर यह ज़िम्मा है कि वह समाज को इन नन्हें जीवों के प्रति भी संवदनशील बनाए। चमगादड़ मानव-बस्तियों में नहीं घुस आये हैं , मानव धृष्टतापूर्वक चमगादड़ों के जंगलों में गया है। अब ऐसे में अगर वह इनसे रोग पा रहा है और मर रहा है , तो इसमें चमगादड़-बेचारे का क्या दोष !