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यू डिच्ड अस ​इरफ़ान!

ये सिनेमा साला फ़रेबी चीज़ है. किसी को अपने इतने क़रीब ले आता है कि वो भला कम्बख़्त आपको जानता भी ना हो लेकिन आप उसके आशिक बन जाते हैं.

-रोहित जोशी


"..एंड येस.. वेट फॉर मी..!" अपनी आख़िरी दर्ज आवाज़ में तुमने हमें यही कहा है इरफ़ान. इंग्लिश मीडियम के उस ट्रेलर में तुम्हारी आवाज़ का आख़िरी हिस्सा.. "..एंड येस.. वेट फॉर मी..! वी वेटेड.. बट नाव यू हेव गॉन टू नेवर कम बैक! हाउ लॉंग ए लवर कैन वेट..मैन! कोई पिक़्चर थोड़े ही चल रही है यार! यू डिच्ड अस इरफ़ान.. यू डिच्ड बाय प्रॉमिसिंग अस! एवरीबडी वज़ वेटिंग फॉर यू! एंड यू लैफ़्ट.. यू डिच्ड! दिल ऐसे ही रो रहा है. इतने ही हक़ से, इतनी ही शिकायत से. जैसे अपना ही यार था, जिसके साथ बैठ कर चाय पीते थे.. हो हल्ला, हुड़दंग करते थे. ठहाके लगाते थे.. किसी रोज़ जैसे मुहब्बत का कोई राज़ उस पर खोल देते हों. जैसे कभी दुखते हों तो कंधे पर ​सिर या फ़ोन पर कान गढ़ाकर जी भर रो देते हों. ये सिनेमा साला फ़रेबी चीज़ है. किसी को अपने इतने क़रीब ले आता है कि वो भला कम्बख़्त आपको जानता भी ना हो लेकिन आप उसके आशिक बन जाते हैं. मैं नहीं जानता कि क्या इरफ़ान का मुझे महज अभिनय पसंद था? नहीं! वह सिर्फ अभिनय नहीं था शायद. लेखक और प्रोफ़ेसर प्रभात उप्रेती अक्सर कहा करते हैं कि बुनियादी तौर पर आर्टिस्ट हो जाना तो बस दिमाग़ के ​भीतर उस फ़ैकल्टी का डेवलेप हो जाना है, जिससे आप रचने लगते हैं. हालांकि वह भी पूरी एक प्रोसेस है. ऐसी ही एक फ़ैकल्टी, ​एक क्रम में इरफ़ान के दिमाग़ में भी पैदा हुई होगी, जो उनसे ऐसा संजीदा अभिनय कराती रही होगी. लेकिन इरफ़ान का महज इतना ही मुझे पसंद था, शायद ऐसा नहीं है. उसके भीतर एक मुक़म्मल इंसान था या उसे उकेरने की छटपटाहट थी. उसका अभिनय उसी को परिष्कृत कर रहा था. शायद यही चीज़ थी जो मुझे आकर्षित करती थी. असल में हमेशा मेरा मक़सद भी तो यही होना जाना था. मैं जिस भी डिसिप्लिन में था, चित्रकार के, या पत्रकार के, या लेखक के. मेरा मक़सद भी इरफ़ान हो जाना था. यही पूरी की पूरी पर्सनैलिटी थी जो मुझे इरफ़ान के भीतर झांकते मिलती थी, मुझे आकर्षित करती थी. और यह वो पर्सनैलिटी कतई नहीं है, जिसे इस क़द के कलाकारों को घेरे कृतिम छवि नियंता गढ़ते हैं.. जो उतनी ही रियायत आपको उसके भीतर झांकने की देते हैं जितने से मुनाफ़ा सधता रहे. इरफ़ान उस जंजाल को फाड़ते हुए बाहर आते हैं और तपाक से मुझसे और मेरे जैसे हर किसी से संवाद करते हैं. लोग इरफ़ान के एक्सप्रेशंस की तारीफ़ करते हैं.. उनकी आंखों की, आंखों के अभिनय की.. लेकिन असल में ये सब दिमाग़ की उसी फ़ैकल्टी का पार्ट है. हालांकि कई लोग मेरी इस बात को बचकाना कहेंगे. लेकिन फिर भी आसानी से तो हरगिज़ नहीं, मगर ऐसे ऐक्सप्रेशंस डेवलेप हो सकते हैं. गहरा रियाज़ चाहिए. गोविन्द निहलानी की फ़िल्म 'पार्टी' याद आ रही है जिसमें एक स्टेज़ में एक थिएटर का कलाकार अभिनय कर रहा है. निहलानी और शफ़ी इनामदार (फ़िल्म में रवि) इस जगह पर आपको रोक देते हैं. उसके अभिनय में चौका देने वाले एक्सप्रेशंस हैं, बेचैनी है जो आपको झकझोर देती है और इतना धैर्य है जो कल्पनाओं में ही सोचा जा सकता है. एक नई थिएटर आर्टिस्ट आंखें फाड़े इस अभिनेता की फ़ैन हो गई है. वह उसे अभिनय के ईश्वर की तरह देख भक्ति में डूबी अभिभूत है. लेकिन अगले ही कुछ दृश्यों में अभिनेता ज़मीन पर उतर आता है. उसे शहर भर के संभ्रांत बुद्धिजीवियों के लिए अभिजात्य महिला मिसेज़ दमयंती राने (विजया मेहता) की ओर से रखी एक पार्टी में जाना है. उस पार्टी के क़िरदारों के साथ अपने संबंधों और अपने ख़ुद के जीवन में उलझा वह फिर आपको 'कलाकार' नहीं 'अभिनेता' लगने लगता है. ऐसे भाव आपको फिर वह नहीं दे पाता जो उस नई थिएटर जिज्ञासु के​ लिए उसे ईश्वर-तुल्य बनाकर उभारते हैं या फिर ख़ुद शुरूआती दृश्यों में आपके ज़ेहन में उभरते हैं. थोड़ा वापस लौटें, लोग इरफ़ान के एक्सप्रेशंस की तारीफ़ करते हैं.. उनकी आंखों की, आंखों के अभिनय की.. लेकिन असल में ये सब दिमाग़ की उसी फ़ैकल्टी का पार्ट है. वो एक्सप्रेशंस पैदा हो सकते हैं, वो दिमाग़ की एक फ़ैकल्टी है. उसकी ट्रेनिंग हो सकती है. रियाज़ उसे निखार देगा. दक्ष बना देगा. अभिनय करना फिर आसान हो जाएगा. दूसरे डिसिप्लिन्स की शक़्ल में कहें तो हाथ लगाते ही सधे चेहरे कागज़ पर उतरेंगे, एब्स्ट्रेक्ट संपूर्ण आकार लेकर कैनवॉस पर उतरेगा या​ फिर शब्द जब फूटेंगे तो विस्मय में डालती किसी कविता, कहानी या उपन्यास की शक्ल में. किसी इंस्ट्रुमेंट में हाथ रखना भर हो सकता है चुंधिया देने वाला जादू पैदा कर दे. लेकिन यह सब एक अन्यत्र साश्वत रियाज़ के बग़ैर वह आकर्षण नहीं पैदा कर सकता जो इरफ़ान में है. जिसकी दूसरी बानगी के लिए आप डच चित्रकार वॉन गॉग तक जा सकते हैं, जिसने महज चित्र नहीं रचे कलाकृतियां रचीं. यह रियाज़ ज़िंदगी से एकदम लिपटा हुआ. जिससे बचा नहीं जा सकता. लेकिन यहीं संवेदनाओं और अनुभवों को बटोरने में पाई महारथ आपको किसी भी कला में कालजयी कर सकती. जिसमें एक-एक अनुभव, और उस अनुभव से उत्पन्न संवेदनाएं, छेनी की धीमी-धीमी चोट की तरह आपके असल को गढ़ती हैं. यही आपको शेप करता है, उस पर्सनैलिटी को शेप करता है, ​जो फिर इरफ़ान हो जाती है. इरफ़ान, जिनसे मैं कभी नहीं मिला और जिनसे मैं उस नई थिएटर आर्टिस्ट की तरह प्रभावित भी हुआ, क्या मैं उनसे मिलता तो उनसे मिलना पार्टी फ़िल्म के उस रवि से मिलने की तरह होता? हो कुछ भी सकता है, लेकिन मेरा यक़ीन है कि इरफ़ान से मैं ठीक वैसे ही मिला होता जैसे मैं ख़ुद से मिलना चाहता हूं, इरफ़ान हो पाने के बाद. मेरा ये यक़ीन लंदन से लिखी उनकी उस ​चर्चित चिट्ठी पढ़कर, ऐसे समय में उनके मनोभावों को जानकर और मुक़म्मल होता है.

मैं जिज्ञासावश सोच रहा हूं, इंग्लिश मीडियम फ़िल्म के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल उस स्क्रिप्ट को क्या किसी स्क्रिप्ट राइटर ने लिखा होगा या ख़ुद इरफ़ान ने, जिसमें वे कहते हैं-


नमस्कार मैं इरफ़ान. मैं आज आप लोगों के साथ हूं भी और नहीं भी. ख़ैर! ये फ़िल्म अंग्रेज़ी मीडियम मेरे लिए बहुत ख़ास है. सच! यक़ीन मानिए मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि इस फ़िल्म ​को उतनी ही प्यार से प्रमोट करुं जितनी प्यार से हम लोगों ने इसे बनाया है. लेकिन मेरे शरीर के भीतर कुछ अनवॉंटेड मेहमान बैठे हुए हैं. उनसे वार्तालाप चल रहा है. देखतें हैं किस करवट ऊँट बैठता है. जैसा भी हो आपको इत्तेला कर दी जाएगी. कहावत है, ''when life gives you lemons make lemonade!'' बोलने में अच्छा लगता है लेकिन जब लाइफ़ सच में आपके हाथ में नींबू रखती है ना, शिकंजी बनाना मुश्किल हो जाता है. लेकिन आपके पास और चॉ​इस भी क्या है पॉज़िटिव रहने के अलावा? इन हालात में आप नींबू की शिकंजी बना पाते हैं कि नहीं बना पाते हैं ये आप पर है. और हमने इस फ़िल्म को उसी पॉज़िटीविटी के साथ बनाया है. मुझे उम्मीद है कि यह फ़िल्म आपको सिखाएगी हंसाएगी, रूलाएगी... फिर हंसाएगी शायद! इंजॉय द ट्रेलर एंड बी काइंड टू ईच अदर! एंड वॉच द फ़िल्म... एंड येस.. वेट फॉर मी!
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